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मजदूरों के लिए आगे की योजना कहां?

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मजदूरों के लिए आगे की योजना कहां?
देश भर के प्रवासी मजदूर अपने घर लौटना चाह रहे हैं। कोरोना वायरस से जान जाने के खतरे और लॉकडाउन की वजह से पैदा हुई आर्थिक अनिश्चितता ने उनको भावनात्मक रूप से बेहद अस्थिर कर दिया है। उनको सिर्फ इतना समझ में आ रहा है कि अपने घर-गांव लौट जाएं। वे तात्कालिक भावुकता में यहां तक सोच रहे हैं कि अगर मरना ही है तो घर जाकर मरते हैं। वहां मरते हैं, जहां से अपनी जिंदगी की शुरुआत हुई थी। अभी तो वे इसी प्रवाह में बह रहे हैं। यह कहने की जरूरत नहीं है कि भावना का यह उफान सुनामी की तरह है और अगर इसे रोकने या नियंत्रित करने का प्रयास हुआ तो ज्यादा तबाही मचेगी। सरकारों ने देर से इस बात को समझा और उसके बाद आनन-फानन में जैसी भी व्यवस्था हो सकती है वह की जाने लगी ताकि मजदूरों को उनके घर पहुंचाया जा सके। पर सवाल है कि उसके बाद क्या? क्या मजदूरों को घर पहुंचा देने से उनकी समस्या का समाधान हो जाएगा? अर्थव्यवस्था के सामने खड़ा संकट टल जाएगा? सरकारों की जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी? इन तीनों सवालों का जवाब नकारात्मक है। इससे न तो किसानों की समस्या हल हो रही है, न आर्थिकी का संकट टल रहा है और न सरकारों की जिम्मेदारी पूरी हो रही है। सरकार इस बात को समझ रही है कि गांव में लौटे किसान के पास रोजगार नहीं होगा और अगर रोजगार का बंदोबस्त नहीं किया गया तो गांवों में स्थानीय स्तर पर ज्यादा समस्या बढ़ेगी। यह समस्या सामाजिक, आर्थिक और वैयक्तिक तीनों तरह की होगी। तभी सरकार ने मनरेगा के तहत 40 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त आवंटन किया है। पहले से इस मद में 61 हजार करोड़ रुपए दिए गए हैं। यानी एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का फंड मनरेगा में खर्च होगा। मनरेगा के तहत अब ज्यादा दिन तक काम भी दिया जा सकता है। इस लिहाज से इसे एक अच्छा तात्कालिक उपाय माना जा सकता है। पर असल में मजदूरों के लिए लंबे समय की योजना बनाने की जरूरत है। सरकार की ओर से 21 लाख करोड़ रुपए का जो पैकेज घोषित किया गया है उसमें बार बार यह कहा गया है कि बुनियादी ढांचे से जुड़े सुधार हो रहे हैं और उस सेक्टर में पैसा डाला जा रहा है ताकि लंबे समय में देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सके। कहने की जरूरत नहीं है कि वास्तविक अर्थों में कोई भी देश आत्मनिर्भर बनता है तो साथ साथ उसके नागरिक भी आत्मनिर्भर बनते हैं। यानी अगर सरकार के इस पैकेज से आर्थिकी की हालत सुधरती है तो उसका फायदा मजदूरों को भी समान रूप से मिलेगा। पर अभी तक अगर मजदूरों के नजरिए से देखें तो उनके फायदे की कोई बात नहीं दिख रही है। उलटे श्रम कानूनों में किए गए बदलावों की वजह से उनकी मुश्किलें और बढ़ने का अंदेशा दिख रहा है। मौजूदा हालात को देखते हुए कुछ बहुत स्पष्ट निष्कर्ष निकल रहे हैं। पहला निष्कर्ष यह है कि ज्यादातर मजदूर देर-सबेर अपने घर लौटेंगे। उन्हें भले अभी बसें नहीं मिल रही हैं या ट्रेनों में टिकट के लिए वे संघर्ष कर रहे हैं या पैदल चल रहे हैं या ट्रकों में भर कर जा रहे हैं पर यह तय है कि वे किसी न किसी तरह से अपने घर जाएंगे। सरकार और उद्यमी चाहे कुछ भी कहें, वे कितना भी सब्जबाग दिखाएं, आर्थिकी खोलने के दावे करें पर मजदूर रूकने वाला नहीं है। ज्यादातर मजदूर अपने घर जाएंगे। दूसरा निष्कर्ष यह है कि घर जाने वाले मजदूर जल्दी नहीं लौटेगा। अभी जो मजदूर गांव जा रहे हैं वे छुट्टी मनाने नहीं जा रहे हैं। वे अपनी जान की चिंता में और नौकरी से हाथ धोकर गांव जा रहे हैं। यह भी तय है कि अगले कई महीनों तक जान की चिंता खत्म नहीं होने वाली है और न उन्हें नौकरी मिलने की उम्मीद बंधने वाली है। इसलिए वे दिवाली-छठ तक गांव में रहने वाले हैं। गांवों में भी उनके पास कोई खास काम नहीं होगा पर वे किसी तरह से अपना जीवन चलाएंगे। अगर राज्य सरकारें विजनरी होंगी तो इस स्थिति का फायदा उठा कर स्थानीय स्तर पर छोटे उद्योगों को बढ़ावा दे सकती हैं पर फिलहाल देश के किसी भी मुख्यमंत्री की शक्ल और समझदारी देख कर ऐसा नहीं लग रहा है कि वह सच में इस तरह की कोई योजना बनाएगा। हां, घोषणा सभी करेंगे। मजदूरों की समस्या यहीं पर खत्म नहीं होती है। उनके पलायन से एक बड़ा संकट विश्वास का पैदा हुआ है। मजदूर जहां अपने गांवों में पहुंचे हैं वहां लोग उन पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में ‘बंबईया’ या ‘दिल्ली वाले’ मजदूरों को लेकर यह आम चर्चा है उस पर भरोसा नहीं कर सकते हैं, उसे दिल्ली, मुंबई की हवा लग गई है और वह गांव में नहीं रूकेगा। सो, वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दीर्घावधि वाली योजना का हिस्सा नहीं बन पाएगा। कोई भी व्यक्ति उसे ध्यान में रख कर अपना कामकाज नहीं बढ़ाएगा। मजदूरों की अनुपलब्धता की वजह से जिन लोगों ने खेती-किसानी बंद की है वे इनके सहारे काम नहीं शुरू करने वाले हैं। इसी तरह का अविश्वास इन्हें लेकर महानगरों में है। लॉकडाउन के चौथे चरण के लिए दिल्ली सरकार ने जो दिशा-निर्देश जारी किया है उसमें उसने साफ कहा है कि औद्योगिक गतिविधियां शुरू होंगी पर उसने सिर्फ वहीं मजदूर काम करेंगे, जो दिल्ली के हैं। दिल्ली के हैं कहने का मतलब यह है कि अभी जो मजदूर, चाहे वह कहीं का हो, पर दिल्ली में रह रहा है। लेकिन यह स्थिति तेजी से बदलेगी। देश के कई राज्यों ने और उन राज्यों के उद्यमियों ने स्थानीय मजदूरों को तरजीह देने वाली नीति बनानी शुरू कर दी है। स्थानीय लेबर पर उनका भरोसा बढ़ रहा है। लंबे समय में प्रवासी मजदूरों को इसका बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह स्थिति लंबे समय तक रहने वाली है। इसलिए सरकारों को बहुत सोच समझ कर इस बारे में नीतियां बनानी होंगी।
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