भारत की सरकार की लगातार कोशिश यह है कि कोरोना महामारी से लगातार बढ़ रहे खतरे को कम करके बताया जाए। इसलिए रोज खबरों में कम मृत्यु दर और स्वस्थ होने वाले की बढ़ती दर का उल्लेख किया जाता है। लेकिन इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो भारत के लिए विशेष हो। कोरोना वायरस की प्रकृति ही ऐसी है, इसका फैलाव तेजी से होता है, लेकिन इससे मृत्यु दर अपेक्षाकृत कम है। इसलिए ऐसे आंकड़ों पर संतोष करने की कोई वजह नहीं है।
भारत की असली तस्वीर यह है कि कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं और इलाज के इंतजाम चरमराते जा रहे हैं। आज कोरोना संक्रमण का इलाज कराना एक दुष्कर कार्य हो गया है। अपने निदान या उपचार के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था की तरफ देखने वाले आम लोगों को निराश होना पड़ रहा है। जिन्हें संक्रमित होने का शक है, वो अपनी जांच नहीं करा पा रहे हैं और जो संक्रमित हो चुके हैं वो अस्पताल में भर्ती नहीं हो पा रहे हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें तुरंत इलाज की जरूरत वाले मरीजों को एक के बाद एक कई अस्पतालों ने भर्ती करने से मना कर दिया और फिर उनकी मृत्यु हो गई। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक यही हाल लगभग सभी बड़े शहरों का है। इन खबरों के मुताबिक मुंबई में तो 99 प्रतिशत आईसीयू के बिस्तर भर चुके हैं और 94 प्रतिशत वेंटीलेटर इस्तेमाल में लगाए जा चुके हैं।
अहमदाबाद और बेंगलुरु जैसे शहरों से भी ऐसी ही खबरें आ रही हैं। यह तो साफ है कि लॉकडाउन कोरोना का संक्रमण रोकने में नाकाम रहा। मगर उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या लॉक़डाउन के उन ढाई महीनों का इस्तेमाल देश में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने में नहीं हुआ? अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई है जिससे राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के आंकड़े मिल सकें। इस रूप में सिर्फ नीति आयोग की 11 मई की एक रिपोर्ट र उपलब्ध है जो कहती है कि कोविड-19 से लड़ाई में संस्थागत इंफ्रास्ट्रक्चर देश की एक कमजोरी है। रिपोर्ट के अनुसार देश में हर 1,445 मरीजों पर एक डॉक्टर है। हर 1,000 लोगों पर अस्पतालों में सात बिस्तर और 130 करोड़ की आबादी के लिए सिर्फ 40,000 वेंटीलेटर हैं। ऐसे में दिलासा दिलाने वाले कथानक से हकीकत को कब तक छिपाया जा सकेगा?
निरर्थक कथानक का परदा!
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