आंदोलनकारी किसानों के दिल्ली में डेरा डाले 100 से ज्यादा हो गए हैं। लेकिन गतिरोध जहां का तहां है। कई विश्लेषकों का आरंभ से अनुमान था कि इस आंदोलन का गतिरोध खत्म नहीं होगा। आंदोलन कमजोर हो सकता है। या दोबारा उभर सकता है। लेकिन सरकार नहीं झुकेगी। अब तक यही बात सच साबित होती दिख रही है। किसान अब आंदोलन को सियासी रंग भी दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि किसान 100 दिनों से सड़कों पर बैठे हैं। लेकिन सरकार उनकी मांगें मानने को तैयार नहीं हैं। अगर सरकार तीनों कानूनों को वापस नहीं लेने पर अड़ी रहती है, तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसका असर देखने को मिलेगा। भाजपा को किसानों का गुस्सा झेलना पड़ेगा। ये बात अगर सच हो, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकार किसानों के प्रति नरम पड़ सकती है। इसलिए कि आखिर आज के दौर में भाजपा एक चुनाव लड़ने की मशीन बन कर रह गई है। उसके लिए सब कुछ चुनाव और सत्ता है।
इसलिए सत्ता पर असर पड़ने का अंदेशा हो, तो उसका रुख बदल सकता है। लेकिन सवाल है कि क्या ऐसा होगा। फिलहाल, इसकी संभावना कम है। इसलिए कि किसान आंदोलन का गहरा असर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आगे नहीं जा सका है। इस बीच आंदोलन के भीतर आत्म- निरीक्षण की प्रक्रिया शुरू होते दिख रही है। उसके एक प्रमुख नेता ने कहा है कि आंदोलन को अपनी मांगों पर किस हद तक अड़े रहना चाहिए और उसमें कहां तक झुकना चाहिए, इस पर विचार करने की जरूरत है। जाहिर है, ऐसे बयान आंदोलन में थकान के लक्षण हैं। सरकार आखिर उसी दिन के इंतजार में है, जब आंदोलनकारी थकान का शिकार हो जाएंगे। वैसे किसान एकता मोर्चा ने आधिकारिक रूप से यही कहा है कि जब तक कृषि कानून वापस नहीं लिए जाते किसान धरना जारी रखने के लिए तैयार हैं। मोर्चा न कहा है कि 100 दिनों के बाद उनका आंदोलन मांगों को पूरा करने के लिए सरकार पर एक नैतिक दबाव डालेगा। यह नैतिक रूप से सरकार को कमजोर करेगा। तब फिर से बात करने के लिए किसानों के साथ बैठना होगा। उसने दोहराया है कि कृषि कानून डेथ वारंट की तरह हैं। ये बात किसानों में गहरे पैठे हुई है। तभी ये आंदोलन इतना लंबा चला है। फिर भी उसकी कामयाबी की राह नहीं निकली है।
किसान आंदोलनः 100 दिन बाद
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