कहा जाता है कि लोकतंत्र प्रेसर कुकर की तरह एक सेफ्टी वॉल्व है, जिसमें जब गुबार पैदा होता है, तो उसे निकल जाने का स्वतः मौका मिल जाता है। इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में कानून या नीति निर्माण एक साझा प्रक्रिया होती है। उस पर खुल कर बहस होती है और सबकी बात सुनी जाती है। अंततः किसी की बात पूरी नहीं मानी जाती, लेकिन सबको लगता है कि उसकी सोच को भी जगह मिल गई है। नतीजतन, पूर्णतः संतुष्ट कोई नहीं होता, लेकिन सभी अगली बार अपनी बाकी बात मनवाने के भरोस के साथ रोजमर्रा की गतिविधियों में जुट जाते हैं। इसीलिए माना जाता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं ध्वस्त नहीं होतीं- यानी उस प्रेसर कुकर की तरह फट नहीं जातीं, जिसकी सीटी जाम हो गई हो। ये बात भारत के मौजूदा सत्ताधारियों के नजरिए से बाहर है। इसलिए वे एकतरफा ढंग से राज्य-व्यवस्था को नए रूप में ढालने में लगे हुए हैं। इस दौरान कदम संवैधानिक या संसदीय प्रक्रियाओं के मुताबिक है या नहीं, वे इसकी भी फिक्र नहीं कर रहे हैं। इसकी सबसे ताजा मिसाल तीन कृषि कानून ही हैं, जिन्हें राज्य सभा में ध्वनि मत से पास कराया गया। वह भी कोरोना काल में जब कुछ एक तरह से बंद था। तो उसका परिणाम सामने है। यही परिणाम गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली की सड़कों पर दिखा।
साल भर पहले ऐसा नागरिकता संशोधन कानून के सिलसिले में देश के कई हिस्सों में दिखा था। कुल निष्कर्ष यह है कि लोकतंत्र की बुनियाद जो संवाद और समझौते का नजरिए होता है, उसे आज तोड़ दिया गया है। मेरे रास्ते पर चलो या दूर हो जाओ- के नजरिए से शासन चलाने की कोशिश की गई है। तो इससे जो गुबार अलग-अलग जन समूहों में बन रहा है, उसके लक्षण दिख रहे हैँ। दिल्ली की सीमाओं पर हजारों किसान पिछले 62 दिनों से आंदोलन कर रहे हैं। किसान संगठनों और सरकार के बीच 11वें दौर की बातचीत बेनतीजा रही है। तो किसानों ने 26 जनवरी को अभूतपूर्व ट्रैक्टर परेड का आयोजन किया। इसके पहले वे 8 दिसंबर को भारत बंद का आयोजन कर चुके हैं। लेकिन बात कहीं आगे नहीं बढ़ी है। इस बहस का ज्यादा मतलब नहीं है कि टैक्टर परेड के दौरान लाल किले पर झंडा किसने फहराया। यानी क्या अतीत में भाजपा में रहा दीप सिद्धू भाजपा के इशारे पर आंदोलन में तोड़फोड़ करने के मकसद से वहां गया था। असल बात लोगों में बन रहा गुबार है, जिसे समझने की सरकार कोशिश नहीं कर रही है।