बेबाक विचार

निजीकरण से जुड़े मसले

ByNI Editorial,
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निजीकरण से जुड़े मसले
बैंक और बीमा कर्मचारियों ने इन क्षेत्रों के निजीकरण के सरकार के फैसले के खिलाफ दो दिन की हड़ताल की। लेकिन इसे प्रतीकात्मक विरोध ही समझा जाएगा। वैसे भी वर्तमान सरकार किसी विरोध या आंदोलन को बर्दाश्त नहीं करती। चूंकि अभी इन कर्मचारियों का विरोध प्रतीकात्मक है, इसलिए सरकार ने इन पर ध्यान नहीं दिया। ना ही सरकार समर्थक मीडिया ने उस पर गौर किया। बहरहाल, कर्मचारियों को अंदेशा है कि निजीकरण से ना सिर्फ उनको नुकसान होगा, बल्कि ये कदम देश के हित में भी नहीं है। खासकर सरकारी बैंक की सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में अहम भूमिका होती है। जब बैंकों का निजीकरण शुरू हो जाएगा, तो फिर उसका ऐसी योजनाओं पर असर पड़ना तय है। बहरहाल, मीडिया में आई खबरों के मुताबिक फिलहाल केंद्र सरकार ने मध्यम आकार के चार बैंकों का निजीकरण करने का निर्णय लिया है। जिन चार बैंकों का चयन किया गया है वे हैं- बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया। कुछ जानकारों ने कहा है कि ये अपेक्षाकृत छोटे और कमजोर सरकारी बैंक हैं, जिनकी माली हालत खस्ता है। इस हालत को देखते हुए खरीददारी के लिए बहुत कम लोग सामने आ सकते हैं। इससे मुमकिन है कि विनिवेश की सरकारी योजना से जोड़ी गई उम्मीदें पूरी ना हों। मीडिया में आई अनधिकृत जानकारी के मुताबिक इनमें से दो बैंकों की बिक्री के लिए चयन अप्रैल से शुरू होने वाले वित्त वर्ष 2021-22 में होगा। बीते एक फरवरी को पेश केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने विनिवेश योजना के तहत सरकारी बैंकों के निजीकरण की घोषणा की थी। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया था कि किन बैंकों का पहले निजीकरण होगा। खबरों के मुताबिक सरकार देश के सबसे बड़े बैंक- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में अपनी अधिकतर हिस्सेदारी बरकरार रखेगी। निजीकरण के समर्थकों का कहना है कि महामारी के कारण भारत की अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है। इस कारण अब बड़े सुधारों की जरूरत है। ऐसे में केंद्र सरकार बैंकिंग सेक्टर में आमूलचूल बदलाव लाना चाहती है। ये बात अपनी जगह ठीक हो सकती है। लेकिन सरकार ने अपने निजीकरण को जिस तरह कुछ गिने-चुने उद्योग घरानों तक सीमित कर दिया है, इसलिए उसकी ऐसी हर योजना के पीछे का मकसद संदिग्ध हो जाता है। ऐसा ही इस मामले में भी हो रहा है।
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