बीते दिनों में बलात्कार और हत्या की ऐसी कई और घटनाएं सामने आई हैं, जिनस समाज हिल गया। लाजिमी है कि समाज अब इसकी वजहों की तलाश में है। साथ ही अपराधियों को समय पर सजा ना होने के लेकर समाज में असंतोष है। जानकारों का कहना है कि लोगों को जमानत इसलिए मिल जाती है, क्योंकि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलता। कई आरोपियों को पुलिस, राजनेता और वकीलों से संरक्षण मिला होता है। इससे पूरे सिस्टम की ही अवहेलना होती है। मसलन, उन्नाव की पीड़ित लड़की ने जब पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की, तब बहुत दिनों तक उसकी रिपोर्ट ही नहीं लिखी गई। 40 घंटे तक जली हालत में रहने के बाद आखिर उसने अस्पताल में इंसाफ मांगते मांगते दम तोड़ दिया। अब अनुसंधानकर्ता भारत में बलात्कार के वजहों की खोज में गहरी छानबीन कर रहे हैं। उनके मुताबिक इसकी जड़ें लैंगिक पूर्वाग्रहों और नियमों में है। लैंगिक समानता के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह आम समस्या है। अपने यहां पुरुषों और लड़कों को बहुत ज्यादा प्रमुखता दी जाती है। महिलाओं को दूसरे दर्जे का समझा जाता है। कम संसाधन वाले गरीब और मध्यम-वर्ग के परिवारों में हमेशा लड़कों को पढ़ाई-लिखाई और दूसरी सुविधाओं में लड़कियों के मुकाबले प्राथमिकता दी जाती है। बहुत छोटी उम्र में ही लड़कियों को यह समझा दिया जाता है कि उनके अधिकार, उनकी इच्छाएं, उनकी राय उतनी अहम नहीं हैं, जितनी कि लड़कों की। लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा की शुरुआत अकसर उनके आसपास के माहौल में ही होती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने हाल ही में 2017 के आंकड़े जारी किए हैं। इनके मुताबिक 93 फीसदी बलात्कार के मामलों में अपराधी पीड़ित को जानने वाला होता है। ये लोग परिवार के सदस्य, दोस्त, पड़ोसी, नौकरी देने वाले और यहां तक कि ऑनलाइन दोस्त भी हो सकते हैं। 2012 में एक पत्रिका ने एक स्टिंग ऑपरेशन से सामने आया था कि दिल्ली की पुलिस में काम करने वाले लोग भी बलात्कार पीड़ितों के बारे में क्या सोचते हैं। इस दौरान पता चला कि ज्यादातर पुलिस वालों का मानना था कि महिलाओं का बलात्कार तभी होता है जब लड़की “ऐसा चाहती” हैं। इन्हीं पुलिस वालों पर बलात्कार के मामलों में रिपोर्ट लिखने से लेकर जांच करने तक की जिम्मेदारी होती है। जाहिर है, समस्या का हल इन बिंदुओं पर ढूंढने की जरूरत है। यानी सिर्फ कानून सख्त करने से बात नहीं बनेगी।
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