सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में जारी प्रतिबंधों के बारे में बीते शुक्रवार को जो फैसला दिया, वह सैद्धांतिक रूप से कुछ मूलभूत सिद्धांतों की पुनर्पुष्टि है। लेकिन इससे व्यवहार में कोई फर्क पड़ा है, कहना कठिन है। मसलन, अगर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इंटरनेट सेवा तक पहुंच मौलिक अधिकार है, तो उसे जम्मू-कश्मीर में इसे तुरंत बहाल करने का निर्णय देना चाहिए था। वरना, बिना औपचारिक आपातकाल के एलान के मौलिक अधिकार से किसी से वंचित रखने का क्या औचित्य हो सकता है? गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जम्मू-कश्मीर प्रशासन को आदेश दिया कि वह एक हफ्ते के भीतर सभी प्रतिबंध आदेशों पर पुनर्विचार करे। ये प्रतिबंध पिछले साल पांच अगस्त को जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद से लगाए गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिना किसी विशेष अवधि और अनिश्चितकाल के लिए इंटरनेट बैन करना दूरसंचार नियमों का उल्लंघन है। इसके अलावा कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि धारा 144 के तहत जारी किए गए सभी आदेश कोर्ट के सामने पेश किए जाएं। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 144 के तहत बार-बार आदेश जारी करना सत्ता का दुरुपयोग होगा। सरकार दुनिया को यह बताने के प्रयास में है कि कश्मीर में हालात सामान्य है। इसके लिए विदेशी राजनयिकों के एक दल को श्रीनगर ले जाया गया। यूरोपीय देशों के राजनयिक इसमें शामिल नहीं हुए। वे चाहते थे कि उन्हें कश्मीर में पूरी आजादी से घूमने- फिरने दिया जाए। सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई, तो उन राजनयिकों ने जाने से इनकार कर दिया। इससे सरकार की मंशा को चोट पहुंची। बहरहाल, अब सरकार के पास एक मौका है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर ईमानदारी और गंभीरता से अमल करके वह दुनिया को यह संदेश दे सकती है कि कश्मीर में सचमुच हालात सामान्य हो गए हैँ। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इंटरनेट का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत बोलने एवं अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है। इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाने का कोई भी आदेश न्यायिक जांच के दायरे में होगा। कोर्ट ने राज्य अधिकारियों से यह भी कहा कि धारा 144 और अन्य प्रतिबंधों के लिए आदेश प्रकाशित करना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि बिना किसी विशेष अवधि और अनिश्चितकाल के लिए इंटरनेट निलंबन दूरसंचार नियमों का उल्लंघन है।
सिद्धांत में तो ठीक है
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