कुछ अपवादों को छोड़ कर लगभग पूरे विपक्ष में इस रणनीति पर भरोसा बना हुआ है कि अगर 2024 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ हर चुनाव क्षेत्र में सिर्फ एक विपक्षी उम्मीदवार खड़ा किया जाए, तो उसे शिकस्त दी जा सकती है। अब भाजपा से नाराज हो कर अगले आम चुनाव में विपक्ष के लिए प्रचार करने का एलान कर चुके जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भी इस हफ्ते दिए एक इंटरव्यू में यह बात दोहराई। अपनी इस बात के पक्ष में उन्होंने 1977 और 1989 के आम चुनावों का हवाला दिया। इस समझ की झलक नीतीश कुमार की ताजा पहल में स्पष्ट है, जिन्होंने पूरे विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम शुरू कर दी है। उन्होंने शुरुआत बुधवार को कांग्रेस नेताओं से बातचीत करके की और उसी शाम आम आदमी पार्टी के नेतृत्व को भी सहभागी बना लिया। उनकी पहल का सिद्धांत यह है कि हर गैर-भाजपा पार्टी से संपर्क किया जाएगा- यानी गैर-भाजपा होने के अलावा ऐसी कोई कसौटी नहीं है, जिसके आधार पर किसी से दूरी बनाई जाएगी। इस तरह ‘लोकतंत्र की रक्षा’ के लिए व्यापकतम विपक्षी एकता कायम की जाएगी। कहा जा सकता है कि इस पहल का मकसद नेक है।
इसके लिए अपनाई गई कसौटी भी तार्किक लगती है। लेकिन क्या कांग्रेस के खिलाफ दो बार कारगर रही रणनीति इस बार भी सफल होगी, यह प्रश्न चुनाव नतीजे आने तक बना रहेगा। इसकी कई वजहें हैं। इनमें प्रमुख यह है कि जब तक विपक्षी एकता से हर प्रदेश में विपक्षी वोटों का गणित जुड़ने की सूरत नहीं बनती, एकता महज इरादों में रह जाती है। जिन राज्यों में वोटों का जुड़ाव फर्क डाल सकता है, वहां विभिन्न पार्टियां गठबंधन सहयोगी को अपने वोट ट्रांसफर करवा पाने की क्षमता पिछले चुनावों में संदिग्ध हो चुकी है। सबसे बड़ी बात यह कि नैरेटिव पर पूरे कंट्रोल के कारण भाजपा के खिलाफ कोई वैसा जनाक्रोश नहीं दिखता, जैसा 1977 या 1989 में कांग्रेस के खिलाफ था। और फिर विपक्ष के पास ‘नरेंद्र मोदी हटाओ’ के अलावा कोई कार्यक्रम संबंधी एकता नहीं है। ऐसे में आशंका है कि आम मतदाता इस एकजुटता को एक नकारात्मक प्रयास के रूप में देखेंगे।