बेबाक विचार

यही तो समस्या है

ByNI Editorial,
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यही तो समस्या है
असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की कोशिश में कैसे नागरिकों के अधिकार का हनन हुआ है, उसका एक स्पष्ट उदाहरण सामने आया है। ये उदाहरण बताता है कि इस पूरी योजना के साथ असल समस्या क्या है। विदेशियों को बाहर निकाला जाए, इससे किसी का विरोध नहीं हो सकता। लेकिन विदेशियों को निकालने की कोशिश में देश के नागरिकों की जिंदगी मुहाल कर दी जाए, इसे आखिर कोई कैसे स्वीकार कर सकता है। उदाहरण यह सामने आया है कि करीब डेढ़ साल तक ‘अवैध विदेशी’ के रूप में डिटेंशन सेंटर में रखने के बाद असम के मोहम्मद नूर हुसैन और उनके परिवार को अब भारतीय घोषित किया गया है। 34 वर्षीय हुसैन, उनकी पत्नी सहेरा बेगम और उनके दो नाबालिग बच्चों को फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (एफटी) ने भारतीय ठहराया है। मोहम्मद नूर हुसैन असम में उदालगुरी जिले के लॉडॉन्ग गांव के रहने वाले हैं। वे गुवाहाटी में रिक्शा चलाते हैं। हुसैन के दादा-दादी का नाम 1951 के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में था। उनके पिता एवं दादा-दादी का नाम 1965 के मतदाता सूची में भी था। वहीं बेगम के भी पिता का नाम 1951 के एनआरसी और 1966 के वोटर लिस्ट में था। परिवार के 1958-59 से जमीन के कागजात हैं। असम में भारतीय नागरिक पहचान के लिए कट-ऑफ तारीख 24 मार्च 1971 है। इन सब के बावजूद गुवाहाटी पुलिस ने हुसैन और बेगम की नागरिकता पर यकीन नहीं किया और 2017 में इसे लेकर जांच शुरू कर दी। हुसैन उतने पढ़े लिखे नहीं हैं कि दस्तावेज को समझ सकें। उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वकील का इंतजाम कर सकें। हुसैन ने किसी तरह एक वकील को 4,000 रुपये दिए। वही उनकी तरफ से ट्रिब्यूनल में पेश हुईं। मगर हुसैन की वकील ने 28 अगस्त 2018 को केस छोड़ दिया। इसके चलते फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में कई सारी तारीखों पर उनकी सुनवाई नहीं हो पाई। उनकी वकील ने यहां तक कह दिया था कि पुलिस से बचने के लिए वे गुवाहाटी छोड़कर भाग जाएं। लेकिन हुसैन ने ऐसा नहीं किया। बाद में ट्रिब्यूनल ने दोनों को विदेशी घोषित कर दिया। जून 2019 में उन्हें गिरफ्तार कर गोआलपाड़ा के डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया। अब उन्हें इंसाफ मिला है। लेकिन जो परेशानी हुई, उसकी भरपाई कौन करेगा? मुद्दा यह है कि असम में कितने नूर हुसैन है, क्या इसका हिसाब किसी के पास है?
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