बेबाक विचार

ऐसे कानून की क्या जरूरत?

ByNI Editorial,
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ऐसे कानून की क्या जरूरत?
नरेंद्र मोदी सरकार के साथ मुश्किल यह है कि वह अपने वैचारिक इकॉसिस्टम से जुड़े समूहों के अलावा सबको अवैध मानती है। इसलिए विपक्ष या सिविल सोसायटी की तरफ से जो मांगें रखी जाती हैं या जो सुझाव दिए जाते हैं, उन पर वह गौर करने की जरूरत भी नहीं समझती। डेटा संरक्षण विधेयक पर संसद की स्थायी समिति में जैसा विवाद हुआ, उसके बाद किसी के मन में यह सवाल सहज ही आ सकता है कि आखिर लोगों के निजी डेटा के संरक्षण के लिए कानून बनाने की जरूरत ही क्या है? अगर सरकार को अपनी मनमानी ही करनी है, तो वह बिना किसी कानूनी प्रावधान के अधिक बेहतर ढंग से कर सकती है। नरेंद्र मोदी सरकार के साथ मुश्किल यह है कि वह अपने वैचारिक इकॉसिस्टम से जुड़े समूहों के अलावा सबको अवैध मानती है। इसलिए विपक्ष या सिविल सोसायटी की तरफ से जो मांगें रखी जाती हैं या जो सुझाव दिए जाते हैं, उन पर वह गौर करने की जरूरत भी नहीं समझती। वरना, संसदीय समिति के कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के सदस्यों ने जिन बातों को लेकर आपत्ति उठाई है, उन पर सरकार जरूर विचार करती। सबसे बड़ी आपत्ति बिल के इस प्रावधान पर है कि हर व्यावहारिक रूप में सरकारी एजेंसियां इस कानून के दायरे से बाहर रहेंगी। ऐसे में प्रस्तावित कानून सिर्फ निजी क्षेत्र को विनियमित करने तक सीमित रह जाएगा। Read also योगी का कंधा और मोदी का टेकओवर! जबकि ऐसे कानून असल मकसद यह होना चाहिए कि  व्यक्तियों के पर्सनल डेटा में कोई भी एजेंसी किस हद तक पैठ बना सकती है या उस डेटा का वह कैसा इस्तेमाल कर सकती है, इसका पूरी वैधानिक व्यवस्था कायम हो सके। सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच 2017 के एक फैसले में निजता को नागरिकों का मूल अधिकार घोषित कर चुकी है। पर्सनल डेटा का सीधा संबंध निजता से है। ऐसे में एजेंसी चाहे सरकारी हो या प्राइवेट- वह लोगों के निजी डेटा का मनमना उपयोग नहीं कर सकती। दुनिया के जिस किसी देश में डेटा संरक्षण का कानून बना है, उसका मकसद नागरिकों को ऐसी ही सुरक्षा देना है। यहां तक कि चीन के कानून में भी ऐसे प्रावधान किए गए हैं, जबकि वहां की व्यवस्था घोषित रूप से तानाशाही है। लेकिन, जैसाकि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के सदस्यों ने ध्यान दिलाया है, भारत के प्रस्तावित कानून में सरकारी दखल से नागरिकों को सुरक्षा देने के प्रावधान नहीं हैं। इसीलिए संसदीय समिति के इन सदस्यों ने अपना डिसेंट नोट (असंतुष्टि पत्र) जोड़ा है। जाहिर है, सरकार की नजर में इसकी भी कोई वैधता नहीं होगी। वह वैसा ही कानून पारित कराएगी, जैसा वह चाहती है। इससे यह भी साफ है कि उसने कृषि कानूनों पर हुई अपनी फजीहत से कोई सबक नहीं सीखा है।
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