बेबाक विचार

रोजमर्रा का अनुभव है

ByNI Editorial,
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रोजमर्रा का अनुभव है
भारत का तजुर्बा भी ऐसा ही है। अच्छी बात यह है कि अब इसके इस स्वरूप को लोग समझने लगे हैँ। ये बात हाल के एक सर्वे से सामने आई है। इसके मुताबिक बड़ी संख्या में भारतीय मानते हैं कि देश में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बढ़ती खाई के लिए सोशल मीडिया जिम्मेदार है। सोशल मीडिया जब प्रचलन में आया, तो उसके बारे में आरंभिक धारणा यह बनी कि यह लोकतंत्र के प्रसार का माध्यम है। अरब देशों में तानाशाही विरोधी संघर्ष, पश्चिम में ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट और भारत में अन्ना एवं निर्भया आंदोलनों में जिस तरह इस नए माध्यम का उपयोग हुआ, उससे उम्मीदें जगीं। लेकिन जल्द ही नफरत और उत्तेजना की सियासत करने वाले समूहों ने इसकी ताकत को समझ लिया। चूंकि उनके पास संसाधनों की कमी नहीं होती, तो उन्होंने सुनियोजित और संगठित ढंग से एक तरह से इस माध्यम पर कब्जा कर लिया। तब से सोशल मीडिया दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए एक चुनौती बन गया है। भारत का तजुर्बा भी ऐसा ही है। अच्छी बात यह है कि अब इसके इस स्वरूप को लोग समझने लगे हैँ। ये बात हाल के एक  सर्वे से सामने आई है। इसके मुताबिक बड़ी संख्या में भारतीय मानते हैं कि देश में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बढ़ती खाई के लिए सोशल मीडिया जिम्मेदार है। सर्वेक्षण में शामिल लगभग आधे उत्तरदाताओं यानी 48.2 प्रतिशत ने महसूस किया कि सोशल मीडिया ने विभिन्न समुदायों के बीच की खाई को काफी हद तक बढ़ा दिया है। लगभग 23 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि सोशल मीडिया ने कुछ हद तक खाई को बढ़ा दिया है। यानी 71 प्रतिशत से अधिक भारतीय सोशल मीडिया को दोनों समुदायों के बीच हाल के संघर्ष के लिए जिम्मेदार मानते हैं। Read also अमीरी और गरीबी की खाई अगर आप राजनीतिक विभाजन को देखें, तो सत्ताधारी भाजपा के 40.7 प्रतिशत मतदाता सोशल मीडिया को काफी हद तक जिम्मेदार मानते हैं, जबकि 53.6 प्रतिशत विपक्षी मतदाताओं ने ऐसा ही महसूस किया है। तो यह राय मजबूत हो रही है कि सोशल मीडिया गलत सूचना, फर्जी खबरें, अपमानजनक और मानहानि करने वाली सामग्री फैलाने और हिंसा को सीधे भड़काने में भूमिका निभा रहा है। गौरतलब है कि एक संसदीय समिति ने कुछ समय पहले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को विनियमित करने की सिफारिशें पेश की थीँ। उनमें एक प्रमुख सिफारिश इन प्लैटफॉर्म्स एक प्रकाशक की तरह मानने की है। ऐसा होने पर उनकी गतिविधियों को विनियमित करने के लिए भारतीय प्रेस परिषद की तर्ज पर कोई नियामक निकाय बनाया जा सकेगा। अगर इस बारे में निष्पक्ष ढंग से व्यवस्था की जाए, तो कहा जा सकता है कि इसके लिए समाज में आज काफी समर्थन मौजूद हो चुका है।
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