बेबाक विचार

“ट्रिकल डाउन” से तौबा

ByNI Editorial,
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“ट्रिकल डाउन” से तौबा
ट्रिकल डाउन अर्थव्यवस्था का मतलब यह होता है कि अगर धनी तबकों के पास पैसा आता है, तो वह धीरे-धीरे रिस कर निम्न वर्ग तक जाता है। इससे सबकी स्थिति बेहतर होती है। इस आर्थिक सोच के पैरोकार इसे इस रूप में यह भी कहते रहे हैं कि नदी में पानी आता है, तो सबकी नांव ऊपर उठती है। अधिक गंभीर आर्थिक शब्दावली में इसे वॉशिंगटन कॉन्सेसस कहा जाता है, जिस पर अमेरिका और बाकी दुनिया पिछले तीन से चार दशक से चलती रही है। इसीलिए जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस समझ के विपरीत बात कही, तो उसने सबका ध्यान खींचा। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल में पहली बार कांग्रेस (संसद) के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए बीते हफ्ते बाइडेन ने कहा- ‘ट्रिकल डाउन इकॉनमिक्स कभी कारगर नहीं हुआ। अब समय आ गया है, जब हम नीचे और मध्य स्तरों से अपना विकास करें।’ इस सोच को और आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अति धनी तबकों पर टैक्स बढ़ाने की जरूरत बताई और कहा कि ऐसा करना अमेरिका में आर्थिक गैर-बराबरी की समस्या को हल करने के लिए जरूरी है। बात सिर्फ जुबानी नहीं है। बल्कि बाइडेन ने इसके पहले अपने बहुचर्चित ‘अमेरिकन जॉब्स प्लान’ के तहत धनी तबकों पर टैक्स बढ़ाने का प्रस्ताव कर चुके हैँ। बाइडेन ने अपने भाषण में इस ओर भी ध्यान खींचा कि पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के दौर में हुई टैक्स कटौती धनी अमेरिकियों के लिए वरदान साबित हुआ। उससे देश में आर्थिक गैर-बराबरी और बढ़ी। बात सिर्फ यहीं तक नहीं रही। बल्कि सरकार की भूमिका क्या हो, इस मामले में भी बाइडेन ने वह कहा, जो प्रचलित अमेरिकी सोच के उलट है। ये सोच पूर्व राष्ट्रपति रॉनल्ड रेगन के जमाने से प्रचलन मं आई थी। रेगन ने कहा था कि सरकार समस्या का समाधान नहीं, बल्कि खुद एक समस्या है। रेगन ने 1981 में ये बात कही। उसके बाद अमेरिका की तमाम सरकारें इसी सोच से राह पर चलती रही हैं। 1996 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि बिग गवर्नमेंट्स यानी अधिक भूमिका वाली सरकारों का युग खत्म हो गया है। उसके 25 साल बाद उसी मंच से बाइडेन ने कहा कि अब वक्त ये साबित करने का है कि बिग गवर्नमेंट कारगर होती है। तो अमेरिका में सोच बदल चुकी है। बाकी दुनिया में इस बारे में कैसी सहमति बनती है, अब देखने की बात होगी।
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