बेबाक विचार

फीसदी बनाम फीसदी!

ByNI Editorial,
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फीसदी बनाम फीसदी!
आज पिछड़ी-दलित जातियों का बड़ा हिस्सा भाजपा से मोहित है और उनके वोट फिलहाल उसकी झोली में हैं। इसलिए ऐसे समीकरणों के जरिए हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने की बात एक दिवास्वप्न ही दिखती है। लेकिन इन पार्टियों की मुश्किल यह है कि उन्होंने इसके अलावा किसी नैरेटिव पर नहीं सोचा। भारतीय जनता पार्टी चुनावों के समय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश करे, तो उसमें कोई हैरत की बात नहीं है। आखिर देश के एक बड़े इलाके में अब तक ये उसका रामबाण साबित होता रहा है। तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए जारी प्रचार अभियान के बीच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का इस चुनाव को 80 बनाम 20 फीसदी का मुकाबला बताना आश्चर्यजनक नहीं है। जाहिर है, उनका इशारा हिंदू और मुस्लिम आबादी के प्रतिशत की तरफ है। लेकिन समाजवादी पार्टी की तरफ से इसके जवाब में 85 बनाम 15 फीसदी का फॉर्मूला उछालना जरूरत अचरज पैदा करता है। इससे यह संकेत मिलता है कि सपा (या अन्य मंडलवादी पार्टियों) ने सामाजिक सोच के हालिया बदलाव से कुछ नहीं सीखा है। वे अभी भी 1990 के दशक के दौर में जी रही हैं, जब मंडलवादी समीकरण कम से कम बिहार और उत्तर प्रदेश में भारी पड़ रहे थे। लेकिन उसके बाद अस्मिता की इस राजनीति को भाजपा ने हिंदुत्व की बड़ी अस्मिता की राजनीति से न सिर्फ भोथरा, बल्कि काफी हद तक निराधार भी कर दिया। आज पिछड़ी और दलित जातियों का बड़ा हिस्सा भाजपा से मोहित है और उनके वोट फिलहाल उसकी झोली में हैं। इसलिए ऐसे समीकरणों के जरिए हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने की बात एक दिवास्वप्न ही दिखती है। लेकिन इन पार्टियों की मुश्किल यह है कि उन्होंने इसके अलावा किसी नैरेटिव के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने अपनी कोई अलग आर्थिक नीति तय नहीं की। व्यापक संदर्भ में किसी वैकल्पिक राजनीति की कल्पना नहीं की। जबकि आरएसएस/भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग की कारगर रणनीति अपना कर जातीय गोलबंदी के आधार पर बने उनके जनाधार को तोड़ दिया। अर्थशास्त्र में लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्न का एक नियम होता है। उसका अर्थ होता है कि अगर बाकी इनपुट समान रहें तो सिर्फ एक इनपुट को बढ़ाते हुए उत्पादन बढ़ाने की रणनीति एक सीमा के बाद ठहराव का शिकार होने लगती है। मंडलवादी राजनीति पर ये नियम इस सदी के आरंभ में लागू होने लगा था। देर-सबेर यह भाजपा की रणनीति पर भी लागू होगा। शायद अभी हो सकता था, बशर्ते उसके मुकाबले आस और बेहतर सपने जगाने वाली कई पार्टी या नेता मौजूद होता। लेकिन फिलहाल, सभी भाजपा की पिच पर खेलते हुए उसकी तरफ से सेट एजेंडे पर चलते दिखते हैँ। ऐसे तो भाजपा की जड़ें नहीं उखाड़ी जा सकतीं।
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