ये ऐसी घटना थी, जिसकी पटकथा सबको पहले से मालूम थी। विकास दुबे ने जब मध्य प्रदेश में समर्पण किया, उसके तुरंत बाद सोशल मीडिया पर ऐसी टिप्पणियों की भरमार लग गई कि अब उसे एनकाउंटर में मार डाला जाएगा। ऐसा अनुमान लगाने वाले सिर्फ विशेषज्ञ और पत्रकार नहीं थे। कई किशोर उम्र नौजवानों ने भी ये बात अपने फेसबुक पोस्ट या ट्विटर पर लिख दी थी। और इन सबकी भविष्यवाणियां सच होने में बमुश्किल 24 घंटे लगे। इस घटना ने उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर की होने वाली घटनाओं के बारे में रहे-सहे संदेह को भी दूर कर दिया है। यहां फर्जी मुठभेड़ को सरकारी नीति के रूप में अपनाया जा रहा है, ये आरोप पहले से लग रहे थे। अब आलोचक कह रहे हैं कि उसकी पुष्टि हो गई है। अब कोई भ्रम नहीं बचा है। ऐसे में अहम सवाल है कि इस देश (या कम से कम उत्तर प्रदेश) में अब कानून का राज और न्याय की उचित प्रक्रिया की अवधारणाओं की क्या जगह रह गई है? जब ये दो अवधारणाएं अमल में ना रह जाएं, तो फिर लोकतंत्र या संवैधानिक व्यवस्था जैसी बातें बेमतलब हो जाती हैं। क्या अब भारत में सचमुच इन्होंने अपना अर्थ खो दिया है? विकास दुबे के एनकाउंटर में मारे जाने, उसके पहले उसके कई सहकर्मियों के इसी तरह मारे जाने और मनमाने ढंग से उसका मकान गिराने की घटनाओं ने इस प्रश्न को बेहद प्रासंगिक बना दिया है। सवाल कई हैं। मसलन, मध्य प्रदेश में गिरफ्तारी के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने विकास को कानपुर लाने के लिए ट्रांजिट रिमांड क्यों नहीं ली थी? इस मुठभेड़ पर सवाल उठाने वाली एक बड़ी बात यह भी है कि विकास दुबे पुलिस, माफिया और राजनीतिक नेताओं की मिली भगत के तंत्र का एक बड़ा गवाह था। कानूनी कार्रवाई के तहत उससे इस तंत्र के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी हासिल की जा सकती थी। अब उसके मारे जाने जाने से वो सारे रहस्य रहस्य ही रह जाएंगे।
दिसंबर 2019 में आंध्र प्रदेश के हैदराबाद में एक 26-वर्षीय महिला के सामूहिक बलात्कार और हत्या के जुर्म में गिरफ्तार किए गए चार आरोपियों भी एक पुलिस ने ‘मुठभेड़’ में मार गिराया था। पुलिस का कहना था कि जुर्म के दृश्य की फिर से रचना करने के लिए उन्हें मौके पर ले जाया गया था, जहां उन्होंने एक पुलिसकर्मी की बंदूक छीन कर भागने की कोशिश की और पुलिस की ‘जवाबी कार्रवार’ में मारे गए। मगर ऐसी कहानियां अब इतनी चिर-परिचित हो चुकी हैं, नाबालिक बच्चे भी इसका सच जानने लगे हैं।