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मोदी की लोकप्रियता क्या कम हुई?

ByNI Editorial,
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मोदी की लोकप्रियता क्या कम हुई?
शंशाक राय- लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कम हो रही है। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजों के बाद जिन लोगों ने ऐसी व्याख्या नहीं की उन्होंने भी झारखंड के नतीजों के बाद ऐसी व्याख्या शुरू कर दी है। झारखंड के चुनाव नतीजों को भाजपा और नरेंद्र मोदी के करिश्मे के खत्म होने की शुरुआत बताने लगे हैं। इसमें संदेह नहीं है कि झारखंड में भाजपा की बड़ी हार हुई है पर यह नरेंद्र मोदी की कमान में भाजपा के करिश्मे के अंत की शुरुआत नहीं है। अगर भाजपा दिल्ली में भी चुनाव हार जाती है तो उसे भी नरेंद्र मोदी के करिश्मे का खत्म होना नहीं माना जा सकता है। असल में अभी राज्यों के चुनाव नतीजों के आधार पर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का आकलन करना थोड़ी जल्दबाजी होगी। क्यों जल्दबाजी होगी इसे समझने के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जितने वोट मिले थे, राज्यों के चुनाव में उनमें कमी आ गई थी। महाराष्ट्र में भाजपा अकेले चुनाव लड़ी और 122 सीटें जीती थी। इस बार उसने शिव सेना के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और डेढ़ सौ सीटों पर लड़ कर ही 105 सीटें जीती। इसे भाजपा की हार नहीं कहा जा सकता है। शिव सेना ने चुनाव के बाद गठबंधन बदल लिया और एनसीपी, कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बना ली। ऐसे ही हरियाणा में भाजपा के वोट जरूर घटे पर उसकी सीटों की संख्या में सिर्फ छह सीटों की कमी आई। ऐसे ही झारखंड में भी नरेंद्र मोदी की पहली सुनामी में भी भाजपा को अकेले बहुमत नहीं मिला था। वह आजसू के साथ गठबंधन करके लड़ी थी और अकेले उसने 37 सीटें जीती थीं। इस बार आजसू से तालमेल टूट गया तो भाजपा 25 सीटों पर रूक गई। तमाम आंकड़े बता रहे हैं कि अगर आजसू के साथ भाजपा का तालमेल होता तो भाजपा पिछला नतीजा दोहरा देती। सो, जाहिर है कि झारखंड के नतीजे को भाजपा की रणनीतिक विफलता कह सकते हैं, निर्णायक चुनावी हार नहीं कहा जा सकता है। भाजपा अगर दिल्ली में भी 30 फीसदी से थोड़ा ज्यादा का अपना वोट बैंक बचाने में कामयाब रहती है तो इसका मतलब है कि यथास्थिति बरकरार है। इन तीनों राज्यों के चुनाव में एक अहम बात यह देखने वाली है कि यह चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी या भाजपा बनाम कांग्रेस का नहीं था। तीनों राज्यों में चुनाव भाजपा के क्षत्रपों के चेहरे पर लड़े गए थे और उनका मुकाबला प्रादेशिक क्षत्रपों के साथ था। जैसे महाराष्ट्र का चुनाव देवेंद्र फड़नवीस बनाम शरद पवार का था। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर बनाम भूपेंदर सिंह हुड्डा और दुष्यंत चौटाला का था। झारखंड में रघुवर दास बनाम हेमंत सोरेन का था। इसमें मोदी स्टार प्रचारक जरूर थे पर चुनाव उनके चेहरे पर नहीं हो रहा था। हां, यह कहा जा सकता है कि मोदी ने केंद्र में आने और देश व भाजपा की कमान संभालने के बाद जो क्षत्रप चुने वे उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। असल में मोदी की लोकप्रियता का आकलन करने के लिए चुनावों को अलग अलग तरीके से देखना होगा। इन दिनों मतदाताओं का व्यवहार बहुत बदला हुआ है। वे केंद्र और राज्यों के चुनाव में अलग अलग तरीके से बरताव करते हैं। झारखंड के लोकसभा चुनाव में जिन लोगों ने भाजपा के लिए वोट किया उसका एक बड़ा हिस्सा विधानसभा चुनाव में या तो तटस्थ हो गया या भाजपा के विरोध में चला गया। इस मामले में बिल्कुल स्थानीय फैक्टर काम करता है। यहीं स्थिति 2014 के चुनाव के बाद दिल्ली और बिहार में देखने को मिली थी। बिहार में लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने नीतीश कुमार का सफाया कर दिया था पर उसी समय यह सुनने को मिला था कि वे विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी को वोट करेंगे। ऐसे ही दिल्ली में लोकसभा में लोगों ने भाजपा को छप्पर फाड़ वोट दिया पर विधानसभा चुनाव में वे आम आदमी पार्टी के साथ चले गए। सो, इस लोकल फैक्टर का आकलन जरूरी है। इसी लोकल फैक्टर से जुड़ी दूसरी बात यह है कि स्थानीय चेहरों और क्षत्रपों के अलावा राज्यों के चुनावों में मुद्दे भी दूसरे होते हैं। नरेंद्र मोदी ने केंद्र में प्रधानमंत्री के तौर पर जो बड़े फैसले किए उससे आमतौर पर राज्यों में ज्यादा असर नहीं हुआ है। राज्यों में चुनाव को स्थानीय मुद्दों ने ज्यादा प्रभावित किया या इस बात ने ज्यादा असर डाला कि मुख्यमंत्रियों ने कैसा काम किया। इसलिए भी राज्यों के नतीजों के आधार पर मोदी की लोकप्रियता का आकलन नहीं किया जा सकता है। तभी जिन राष्ट्रीय मुद्दों को राज्यों के चुनाव में विफल माना जा रहा है उनके बारे में दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि वे देश के चुनाव में भी विफल हो जाएंगे। तीसरी बात राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प की है। ध्यान रहे राज्यों में भी भाजपा को चुनौती तभी मिली जब बहुत स्पष्ट और अच्छे विकल्प हों। यह कहा जा सकता है कि राज्यों में भाजपा के जो क्षत्रप हैं वे विकल्पहीन नहीं हैं। उनको चुनौती देने वाले मजबूत चेहरे थे इसलिए भाजपा को झटका लगा। राष्ट्रीय स्तर पर कम से कम अभी यह बात नहीं कही जा सकती है। अभी नरेंद्र मोदी के सामने कोई मजबूत विकल्प नहीं है और न कोई मजबूत चुनौती है। फिलहाल तो यह भी नहीं दिख रहा है कि लोग मोदी सरकार से इतने नाराज हो गए हैं कि उसे सबक सिखाना चाहते हैं। अगर लोगों की नाराजगी होती भी है तो वह देश के वित्तीय हालात की वजह से होगी।
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