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तो क्या भगवान से मुआवजा मांगें?

ByShashank rai,
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तो क्या भगवान से मुआवजा मांगें?
देश के लोगों ने ‘एक्ट ऑफ गॉड’ का जुमला पिछली बार तब सुना था, जब प्रधानमंत्री के पसंदीदा अभिनेताओं में से एक और भाजपा के पूर्व सांसद परेश रावल की फिल्म ‘ओह माई गॉड’ आई थी। उसमें मुख्य किरदार परेश रावल का था। वे नई चीजों को पुरानी बता कर एंटीक आइटम के नाम पर लोगों को महंगे दाम पर बेचने का फर्जीवाड़ा करते थे। भूकंप में उनकी दुकान गिर गई और बीमा कंपनी ने उनको क्लेम देने से इनकार करते हुए अपनी बीमा शर्तों में से एक शर्त दिखा दी, जिसमें लिखा था कि ‘एक्ट ऑफ गॉड’ के लिए बीमा कंपनी जिम्मेदार नहीं है। जब कोई रास्ता नहीं निकला तो उन्होंने अदालत में भगवान के ऊपर केस कर दिया। उसके आगे की लंबी कहानी है कि कैसे सभी धर्मों के धर्मगुरू जुटे और कैसे मामले का निपटारा हुआ। अब बिल्कुल वहीं कहानी असल में दोहराई जा रही है। अपने बयानों से अक्सर लोगों को अचंभित करने वाली वित्त मंत्री ने जीएसटी कौंसिल की बैठक में कोरोना को ‘एक्ट ऑफ गॉड’ बताते हुए कहा कि इसकी वजह से आर्थिकी का बड़ा नुकसान हुआ है और सरकार राज्यों के जीएसटी बकाए का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। अब सवाल है कि क्या राज्य सरकारें  भगवान से मुआवजा मांगें? जब भगवान की वजह से आर्थिकी का नुकसान हुआ है और राज्यों के पैसे नहीं मिल पा रहे हैं और केंद्र सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं तो क्या राज्यों को सीधे भगवान से अपने मुआवजे की मांग करनी चाहिए? ऐसा हुआ तो बड़ी दिलचस्प स्थिति पैदा हो सकती है। पर लगता है केंद्र सरकार के लोगों ने परेश रावल वाली फिल्म देखी हुई है इसलिए वे इस मामले को भगवान के दरवाजे तक ले जाना नहीं चाहते हैं। एक दिन के बाद ‘एक्ट ऑफ गॉड’ वाल जुमला भी नहीं दोहराया गया है। असल में आर्थिकी की तबाही को वित्त मंत्री जबरदस्ती कोरोना के साथ जोड़ रही हैं। कोरोना वायरस के संक्रमण ने तो आर्थिकी की तबाही की सिर्फ रफ्तार बढ़ाई। तबाही तो पहले से आई हुई थी। जिस जीएसटी की गिरावट के लिए उन्होंने कोरोना को जिम्मेदार ठहराया है उसमें तो बहुत पहले पिछले साल अगस्त से गिरावट शुरू हो गई थी और तब तो चीन में भी वायरस का अता-पता नहीं था। कोरोना वायरस के भारत आने से पहले ही सरकार को इस बात का आभास हो गया था कि वह राज्यों को उनके मुआवजे का बकाया भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। कोरोना वायरस भारत में आने के बाद तो जीडीपी का पहला आंकड़ा 31 अगस्त को जारी हुआ है। अप्रैल-जून की तिमाही का आंकड़ा 31 अगस्त को जारी हुआ। पर उस तिमाही यानी अप्रैल-जून से पहले लगातार सात तिमाहियों में विकास दर गिरी थी। पिछले वित्त वर्ष यानी 2019-20 के आंकड़े से इसका अंदाजा लग जाएगा। 2019-20 की पहली तिमाही यानी अप्रैल से जून के बीच विकास दर 5.2 फीसदी थी। अगली तिमाही यानी जुलाई-सितंबर में यह गिर कर 4.4 फीसदी हो गई। अक्टूबर-दिसंबर की तिमाही में यह 4.1 रही और जनवरी से मार्च की तिमाही में एक फीसदी की भारी गिरावट के साथ 3.1 फीसदी पर रही। जहां तक जीएसटी की बात है तो पिछले साल जुलाई-अगस्त से ही राज्यों को मिलने वाले हिस्से के भुगतान में देरी होने लगी थी। पिछले साल सितंबर में गोवा में जीएसटी कौंसिल की 37वीं बैठक हुई थी, जिसमें कंपनसेशन सेस की बात उठी थी। पर इसे बढ़ाने या इसमें बदलाव का कोई फैसला नहीं हो पाया था। पर उस बैठक में ही साफ हो गया था कि केंद्र सरकार को मुआवजे के तौर पर राज्यों को जितने का भुगतान करना है उसके आधे के बराबर वसूली इस मद में नहीं हो रही है। एक अनुमान के मुताबिक हर महीने राज्यों को 14 से 15 हजार करोड़ रुपए के मुआवजे का भुगतान होना है, जबकि वसूली सात से आठ हजार रुपए की है। तभी सवाल है कि केंद्र सरकार इस घाटे की भरपाई कहां से करेगी? अगर केंद्र सरकार की अपनी स्थिति बेहतर होती यानी प्रत्यक्ष कर की वसूली ज्यादा होती और जीएसटी में केंद्र के हिस्से यानी सीजीसीएसटी की वसूली लक्ष्य से ज्यादा होती तो वह अपने पास से भरपाई कर सकती थी। पर ऐसा नहीं है। केंद्र की अपनी कमाई भी बहुत कम हो गई है। तभी जीएसटी कानून के तहत राज्यों से मुआवजे के भुगतान का जो वादा किया गया है उसे पूरा करने की बजाय केंद्र सरकार ने कानून के फाइन प्रिंट में से यह लूपहोल निकाला है कि सरकार मुआवजा देने के लिए बाध्य नहीं है। इसमें कहा गया है कि सरकार कर वसूली में से ही राज्यों को मुआवजे का भुगतान करेगी। इसका मतलब है कि अगर कर वसूली लक्ष्य के बराबर नहीं होती है तो राज्यों को भुगतान करने के लिए केंद्र बाध्य नहीं है। बीमा कंपनियों के हर मसौदे में इस तरह का कोई न कोई नियम जरूर होता है, जिससे लोगों को क्लेम का भुगतान करने में अड़ंगा लगाया जाता है। केंद्र सरकार ऐसे ही क्लॉज की मनमानी व्याख्या करके राज्यों को उनका हिस्सा नहीं दे रही है। बहरहाल, केंद्र से मुआवजा देने से इनकार करने से राज्यों की हालत खराब हो गई है। एक दर्जन के करीब राज्य ऐसे हैं, जिनके पास बहुत जल्दी अपने कर्मचारियों का वेतन देने के लिए पैसे नहीं होंगे। असल में जीएसटी में राज्यों का हिस्सा 40 फीसदी होता है और जीएसटी लागू होने के बाद राज्यों के कुल राजस्व का 60 फीसदी हिस्सा इसी से आता है। बाकी 40 फीसदी हिस्सा राज्य पेट्रोलियम, शराब और स्टैंप ड्यूटी से पूरा करते हैं। बिहार जैसे राज्य में जहां शराब पर पाबंदी है वहां की क्या हालत होगी, इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। पर चूंकि दो महीने में चुनाव होने वाले हैं इसलिए मुख्यमंत्री मुंह पर ताला लगा कर बैठे हैं। जहां तक वित्त मंत्री के ‘एक्ट ऑफ गॉड’ वाली बात का सवाल है तो उसमें कोई दम नहीं है। आर्थिक संकट मुख्य रूप से नोटबंदी के बिना सोचे समझे फैसले, जीएसटी के जल्दबाजी में किए गए फैसले और सख्त लॉकडाउन के अचानक हुए फैसले की वजह से पैदा हुआ है। तभी कोरोना खत्म हो जाएगा तब भी आर्थिक संकट नहीं खत्म होने वाला है। सरकार को यह सचाई स्वीकार करनी चाहिए और लोगों को भी इस बारे में बताना चाहिए। और जैसा कि सारे जानकार सलाह दे रहे हैं, अपना खजाना खोल कर लोगों के हाथ में पैसा पहुंचाना चाहिए ताकि आर्थिकी की गाड़ी चलनी शुरू हो। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो कर्ज दिलाने की उसकी नीति लगभग सभी राज्यों को दिवालिया करके छोड़ेगी। फिर भगवान भी न राज्यों को बचा सकेंगे, न केंद्र को और न आम लोगों को।
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