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दलबदल कानून में तत्काल सुधार जरूरी

ByNI Editorial,
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दलबदल कानून में तत्काल सुधार जरूरी
भारत में कानून बाद में बनते हैं और उसकी काट पहले खोज ली जाती है। यह बात हर तरह के कानून के साथ लागू होती है। दलबदल कानून भी इसमें शामिल है। पिछले चार-पांच दशक में दलबदल को रोकने के कई कानून बने और कई तरह के दूसरे उपाय किए गए। पर हर बार पार्टियों और नेताओं ने कोई न कोई रास्ता निकाल लिया। जैसे अभी विधायकों, सांसदों के इस्तीफे का रास्ता निकाला गया है। कुछ समय पहले ऐसा सोचा नहीं गया था कि दलबदल करने के लिए जीते हुए जन प्रतिनिधि अपनी सीट से इस्तीफा दे देंगे और उन सीटों पर दोबारा चुनाव कराया जाएगा। आमतौर पर जीते हुए प्रतिनिधि इस्तीफा देने से डरते हैं। पर कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश और गुजरात में जिस थोक भाव से विधायक इस्तीफा दे रहे हैं उससे मौजूदा कानून में बदलाव की तत्काल जरूरत दिख रही है। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 2003 में दलबदल कानून में बदलाव किया था तो माना गया कि अब दलबदल मुश्किल हो जाएगा। उनकी सरकार ने 91वें संविधान संशोधन के सहारे ऐसा बदलाव किया, जिससे पार्टी में टूट-फूट और विलय की प्रक्रिया रूक जाए। चुने हुए प्रतिनिधियों के दलबदल करने के लिए दो-तिहाई की सीमा तय की गई। यानी किसी पार्टी के दो-तिहाई सदस्य एक साथ अलग होते हैं तभी पार्टी में विभाजन हुआ माना जाएगा। वाजपेयी की सरकार ने एक और बड़ा बदलाव किया था। उस समय कानून में बदलाव करते समय यह देखा गया था कि पार्टियां मंत्री पद के लालच में दलबदल कराती हैं। ध्यान रहे बिहार में लालू प्रसाद ने एक बार अपनी पार्टी की राज्य सरकार में 90 मंत्री बना दिए थे और कहा था कि वे भूतपूर्व न हो जाएं, इसलिए अभूतपूर्व मंत्रिमंडल बना दिया है। जबरदस्ती नए विभाग बनाए गए थे या विभागों का बंटवारा किया गया था ताकि मंत्री बनाए जा सकें। सो, वाजपेयी सरकार ने मंत्रियों की सीमा तय कर दी। लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों की संख्या के 15 फीसदी से ज्यादा मंत्री नहीं बनाने का प्रावधान किया गया। इसके बाद माना जा रहा था कि अब दलबदल नहीं होगा या बहुत मुश्किल होगा। पर विडंबना है कि जिस अटल बिहारी वाजपेयी ने दलबदल का रास्ता बंद किया उन्हीं की पार्टी ने उनके जीवनकाल में ही एक नया रास्ता खोल दिया। उनकी पार्टी के एक मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने 2008 में अपने यहां ‘ऑपरेशन कमल’ शुरू किया, जिसके तहत उन्हें राज्य में कांग्रेस और जेडीएस से चुने हुए विधायकों के इस्तीफे कराए और उनकी सीटों पर उपचुनाव करा कर उनको भाजपा की टिकट से चुनाव जिताया। यह बहुत जोखिम का काम है। चुने हुए प्रतिनिधि आमतौर पर अपनी सीटों से इस्तीफा नहीं देते हैं क्योंकि उनका फिर से जीतना पक्का नहीं होता है। पर सत्तारूढ़ दल की ओर से चुनाव जिताने की गारंटी या कुछ और लालच में विधायकों ने इस्तीफा देना शुरू किया। इस तरह से येदियुरप्पा ने अपनी अल्पमत सरकार के लिए बहुमत हासिल किया था। पिछले साल उन्होंने इसी फार्मूले के तहत राज्य की जेडीएस-कांग्रेस सरकार को गिराया और अपनी सरकार बनाई। अब इसी फार्मूले के तहत भारतीय जनता पार्टी मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा कर अपनी सरकार बनाने के काम में जुटी है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने या अपनी सरकार बनाने के लिए विधायकों, सांसदों के इस्तीफे कराए जा रहे हैं। उससे भी छोटे लक्ष्य के लिए विधायकों के इस्तीफे कराए जा रहे हैं। गुजरात में राज्यसभा की एक सीट के लिए भाजपा ने कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफे कराए हैं ताकि कांग्रेस दूसरी सीट नहीं जीत सके। इससे पहले राज्य में बहुमत होने के बावजूद भाजपा ने कांग्रेस विधायकों के इस्तीफ कराए ताकि वह अपनी संख्या बढ़ा सके। संसद के उच्च सदन में विपक्ष को कमजोर करने के मकसद से भी भाजपा ने अपने शासन वाले राज्यों में कई विपक्षी सांसदों का इस्तीफा कराया और उनको फिर से अपनी पार्टी की टिकट से जीता कर राज्यसभा में भेजा। यह दलबदल कानून की आंख से छिप कर पतली गली से बच निकलने की मिसाल है। तभी इस कानून में व्यापक बदलाव की जरूरत दिखाई दे रही है। दलबदल रोकने के लिए तत्काल नया कानून बनाया जाना चाहिए, जिसमें ऐसी किसी पतली गली की गुंजाइश भी नहीं रहे। साथ ही विधायिका के पीठासीन अधिकारियों के अधिकारों को भी नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने दलबदल पर दिए अपने एक फैसले में 1992 में पीठासीन अधिकारी को सदस्यों की योग्यता के बारे में फैसला करने का अधिकार दिया था। इस अधिकार का भी दुरुपयोग अनेक जगहों पर देखने को मिला। पिछले साल कर्नाटक में विधानसभा अध्यक्ष ने 17 विधायकों का इस्तीफा मंजूर करने की बजाय उन्हें अयोग्य घोषित करने का फैसला सुनाया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता निकाला और विधायकों को उपचुनाव लड़ने की मंजूरी दी। पर यह भी कोई समाधान नहीं है क्योंकि इससे दलबदल रूकता नहीं है। चूंकि स्पीकर किसी न किसी पार्टी का प्रतिनिधि होता है इसलिए उसके फैसले पूरी तरह से पक्षपातरहित होंगे, ऐसा नहीं सोचा जा सकता। तभी सदस्यों की योग्यता-अयोग्यता के मामले में उसके अधिकारों की भी नए सिरे से व्याख्या होनी चाहिए। साथ ही दलबदल कानून में व्यापक बदलाव किया जाना चाहिए। एक पार्टी से जीते विधायक या सांसद के लिए यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वह किसी भी स्थिति में कितने समय तक निष्ठा नहीं बदल सकता है। कम से कम एक कार्यकाल की पाबंदी लगनी चाहिए। अगर कोई सांसद या विधायक जिस पार्टी से चुना गया है और उसे छोड़ता है तो उस सदन के कार्यकाल में उसके फिर से चुनाव लड़ने पर रोक लगनी चाहिए। जब तक इस तरह का कोई सख्त प्रावधान नहीं किया जाता है तब तक न कोई विचारधारा बचेगी और न लोकतंत्र बचेगा।
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