देश इस समय आंदोलन के दौर में है। किसी न किसी मसले पर देश के किसी न किसी हिस्से में आंदोलन चल रहा है। अभी आठ जनवरी को ही देश के मजदूर संगठनों ने आर्थिक मसलों को लेकर भारत बंद किया। पूरे देश में तो खैर इसका ज्यादा असर नहीं हुआ पर केरल, पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों में इसका असर दिखा। बैंकों से लेकर अनेक सरकारी दफ्तरों में कामकाज नहीं हुए।
उधर असम में और समूचे पूर्वोत्तर में नागरिकता कानून को लेकर ऐसा आंदोलन चल रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खेलो इंडिया के उद्घाटन समारोह में जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। केरल में कोच्चि से लेकर तेलंगाना के हैदराबाद और चेन्नई से लेकर पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी तक नागरिकता को लेकर आंदोलन चल रहा है।
आर्थिक मुद्दों से लेकर नागरिकता के मसले पर चल रहे आंदोलन के बीच केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने जाने अनजाने में इस विमर्श को बदल दिया है। अब इसकी जगह छात्र आंदोलन लोकप्रिय विमर्श बन गया है। देश भर में इस बात की चर्चा हो रही है कि दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में घुस कर नकाबपोश गुंडों ने छात्रों और शिक्षकों से मारपीट की। उन्होंने बुरी तरह से पीटा। नकाबपोश गुंडों की बर्बरता का प्रतीक दो महिलाएं बनी हैं। पहली महिला जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष हैं और दूसरी यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर सुचरिता सेन हैं। इन दो महिलाओं के माथे पर बंधी पट्टी और हाथों पर चढ़े प्लास्टर से समूचे विमर्श को बदल कर रख दिया है। आज अगर हिंदी फिल्म उद्योग की पहली कतार की अभिनेत्रियों से लेकर सबसे पीछे की महिला कलाकारों ने जेएनयू का साथ दिया है तो उसका कारण इन दो महिलाओं का प्रतिरोध के पोस्टर में बदल जाना है।
अभी पक्के तौर पर यह नहीं पता है कि हमलावर कौन थे। लेकिन जिस अंदाज में भाजपा और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने घायल छात्रों व शिक्षकों के समर्थन में खड़े होने वालों के बहिष्कार की अपील की है उसके बाद से हमलावरों की पहचान को लेकर कोई संशय नहीं रह गया है। उन्होंने खुद ही साबित कर दिया है कि हमलावर या तो उन्हीं में से हैं या उनके प्रति हमदर्दी रखने वाले हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो पार्टी और सारे छात्र संगठन उन छात्रों के साथ खड़े होते, जिनकी पिटाई की गई है। आखिर इस हमले में एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी की छवि पर भी हमला हुआ है, जिसे बचाना हर छात्र की जिम्मेदारी होनी चाहिए। पर जेएनयू के मामले में इसका उलटा हुआ है।
यह भी हैरानी की बात है कि जेएनयू में पिछले तीन महीने से चल रहे आंदोलन और इस हमले में हुई उसकी परिणति का नागरिकता कानून या किसी भी धार्मिक, सामाजिक मसले से कोई लेना देना नहीं है। यूनिवर्सिटी कैंपस में नागरिकता कानून को लेकर आंदोलन नहीं चल रहा था और न ही छात्र अपनी यूनिवर्सिटी के लापता हो गए छात्र नजीब की तलाश के लिए आंदोलन कर रहे थे। उनका आंदोलन छात्रावास, मेस और ट्यूशन की फीस बढ़ाए जाने को लेकर है। नागरिकता का मसला वैचारिक और सैद्धांतिक हो सकता है, जिसमें लेफ्ट और एबीवीपी की विचारधारा अलग अलग हो सकती है। पर फीस बढ़ोतरी तो पूरी तरह से छात्रों का हित का मामला है और इसमें कैसा वैचारिक विरोध हो सकता है?
तभी ऐसा लग रहा है कि अपने वैचारिक विरोधियों पर हमला करने का समय और मुद्दा चुनने में गलती हो गई है और इसी वजह से सरकार और भाजपा दोनों दुविधा में फंसे हैं। उनको समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस पर कैसी प्रतिक्रिया दें। तभी जब भाजपा के नेताओं और दिल्ली के एक सांसद तक ने बॉलीवुड की अभिनेत्री दीपिका पदुकोण के जेएनयू जाने का विरोध किया और उनकी फिल्म के बायकॉट की अपील की तो तुरंत केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने बयान दिया कि लोकतंत्र में किसी को भी कहीं भी जाने और किसी भी मसले पर अपनी राय रखने का अधिकार है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मामला राजनीतिक, सामाजिक या धार्मिक भावना से जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि छात्रों से जुड़ा है।
फीस बढ़ोतरी के विरोध में आंदोलन कर रहे छात्रों के ऊपर गुंडों का हमला एक ऐसी चीज है, जिसे किसी भी तर्क से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। तभी देश भर के छात्र संगठनों को इसका विरोध करने का मौका मिल गया है। इस मसले पर उनके विरोध को हिंदू या देश विरोधी भी नहीं ठहराया जा सकता है। यह छात्र हित का और यूनिवर्सिटी कैंपस की गरिमा का मामला है। तभी दिल्ली यूनिवर्सिटी के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेजों में से एक सेंट स्टीफेंस के छात्र सड़क पर आंदोलन करने उतरे। पिछले 30 साल में ऐसा पहली बार हुआ कि सेंट स्टीफेंस के छात्र आंदोलन के लिए निकले। उन्होंने जेएनयू पर हमले का विरोध किया। इसी तरह दुनिया में सबसे प्रतिष्ठित भारतीय शिक्षण संस्थान इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरू के बच्चे सड़कों पर निकले और उन्होंने कहा कि वे इसलिए आंदोलन करने निकले हैं कि अगर वे चुप रहे तो अगली बार उनकी हो सकती है। कुछ समय पहले इसी आशय का पोस्टर आईआईटी कानपुर, आईआईटी दिल्ली, आईआईटी बांबे आदि के छात्रों ने लगाया था।
सोचें, फीस वापस नहीं करने और आंदोलन कर रहे छात्रों से बात नहीं करने की जेएनयू प्रशासन की जिद और उसके बाद आंदोलनकारी छात्रों पर हुआ हमला किस किस्म के विमर्श में बदल गया है? अगर जाति, धर्म और क्षेत्र से परे होकर छात्र अपने हितों के लिए इस तरह से आंदोलन करेंगे तो उससे किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होगी। (अजित कुमार)
नागरिकता नहीं, छात्र आंदोलन का विमर्श
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