लद्दाख से लेकर सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में वास्तविक नियंत्रण रेखा, एलएसी पर चीन के साथ चल रहा गतिरोध सिर्फ सीमा विवाद नहीं है। अगर यह सिर्फ सीमा विवाद होता तो कब का इसे निपटाया जा चुका होता। इस विवाद के कई और पहलू हैं, जिनकी वजह से विवाद लंबा खींचता जा रहा है और आसानी से खत्म भी नहीं होगा। यहीं स्थिति पाकिस्तान के साथ भी है। उसके साथ भी भारत का विवाद सिर्फ सीमा का मामला नहीं है। ध्यान रहे चीन को अगर जमीन का इतना ही मोह होता हो तो वह भारत की कब्जाई जमीन इतनी आसानी से चीन के लिए नहीं छोड़ता। चीन और पाकिस्तान दोनों का भारत के साथ चल रहा टकराव सीमा विवाद से आगे का मामला है।
भारत और चीन के बीच चार हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी सीमा है और चीन ने इस पूरी सीमा पर किसी न किसी तरह का विवाद खड़ा किया है और उसे सुलझा भी नहीं रहा है। उसने भूटान के साथ भी सीमा का विवाद किया है और वह भी नहीं निपटा रहा है। इसका कारण भी भारत ही है। ध्यान रहे वह भारत की उत्तरी और पूर्वी सीमा पर ही इस किस्म के विवाद पैदा किए हुए है। मध्य एशिया के देशों के साथ उसका जो भी सीमा का विवाद रहा है वह उसने आसानी से निपटा लिया है। यहां तक कि सामरिक जानकारों का कहना है कि उसने अपने हिस्से की जमीन छोड़ कर विवाद निपटाया है। उसने पहले जितनी जमीनों पर दावा किया उससे बहुत कम लेकर उसने मध्य एशिया के देशों के साथ अपना सीमा विवाद सुलझाया।
चीन का सीमा को लेकर ताजिकिस्तान के साथ विवाद चल रहा था। जब इस विवाद को सुलझाने की बैठक हुई तो चीन ने जितनी जमीन पर दावा किया था उसका सिर्फ साढ़े तीन फीसदी हिस्सा लेकर उसने सीमा विवाद खत्म किया। इसी तरह कजाखस्तान के साथ भी चीन का सीमा विवाद चल रहा था और उसने दावे का सिर्फ 22 फीसदी हिस्सा लेकर विवाद को खत्म किया। चीन ने किर्गिस्तान के साथ भी विवाद भी बहुत आसानी से सुलझा लिया और उसकी जितनी जमीन पर उसने दावा किया था उसका महज 32 फीसदी हिस्सा लेकर उसने सीमा विवाद हमेशा के लिए शांत कर दिया। वियतनाम के साथ भी समुद्री सीमा का विवाद उसने सुलझा ही लिया था पर बाद में उसको लगा कि दक्षिण चीन सागर का मसला रणनीतिक रूप से सीमा विवाद से ज्यादा है इसलिए उसने इसमें फच्चर डाल दिया।
असल में चीन का इरादा कुछ और है। वह इस महाद्वीप के साथ साथ पूरी दुनिया में अपने वर्चस्व के लिए इस इलाके में उन देशों के साथ विवाद बढ़ाए रखना चाहता है, जो या तो उसके लिए चुनौती हैं या उसकी सबसे बड़ी चुनौती अमेरिका के सहयोगी हैं। अमेरिका के सहयोगियों को निशाना बनाते रहने की चीन की रणनीति पुरानी है। इसी रणनीति के तहत वह उत्तर कोरिया के जरिए जापान और दक्षिण कोरिया को उलझाए रहता है, कंबोडिया के जरिए वियतनाम को और पाकिस्तान के जरिए भारत को उलझाए रखता है। उसे लगता है कि जापान, दक्षिण कोरिया, भारत आदि देश उसके रास्ते की बाधा हैं। इसलिए वह छाया युद्ध भी लड़ता है और जहां जरूरी होता है खुल कर सामने भी आ जाता है।
यहीं कारण है कि वह भारत के साथ सीमा विवाद नहीं सुलझाता है। उसने सीमा विवाद सुलझाने के लिए भारत की सहमति से एक तंत्र बना रखा है। इसमें भारत की ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बात करते हैं और उसकी ओर से विदेश मंत्री। इस तंत्र की 22 बार बैठक हो चुकी है पर विवाद सुलझाने में रत्ती भर भी तरक्की नहीं हुई है। भूटान के साथ तो चीन के ऐसे ही तंत्र की बैठक 30 बार से ज्यादा हो चुकी है पर मामूली सीमा विवाद नहीं सुलझ रहा है। वह भूटान को इसलिए उलझाए हुए है कि उस विवाद के जरिए वह भारत को परेशान करता रहता है। अगर जमीन का मामला होता तो मध्य एशिया में हजारों मील जमीन छोड़ने वाला चीन इस इलाके में भी आसानी से समझौता कर लेता। पर चूंकि यह सिर्फ जमीन का मामला नहीं है इसलिए इस इलाके में वह एक एक इंच जमीन के लिए लड़ रहा है।
जिस तरह यह सिर्फ जमीन का मामला नहीं है उसी तरह यह सिर्फ पैसे का भी मामला नहीं है। भारत में कुछ लोग समझ रहे हैं कि उसके कुछ एप्स बैन कर देंगे या उसकी कंपनियों को ठेका-पट्टा देना बंद कर देंगे तो इससे चीन को बड़ा आर्थिक नुकसान होगा और वह कदमों में झुक जाएगा। ऐसा समझने वाले लोग मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं। भारत के साथ कारोबार में सिर्फ पैसा बहुत बड़ा फैक्टर नहीं है। चीन पूरी दुनिया को जो निर्यात करता है उसका सिर्फ दो फीसदी भारत आता है। इसलिए भारत उसको बड़ा कारोबारी झटका देने की स्थिति में नहीं है। उलटे उसने भारत में बहुत बड़ा निवेश किया हुआ है, जिसे वापस करने की स्थिति भी भारत की नहीं है। हालांकि भारत ऐसा कर भी दे तब भी उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ना है।
सो, यह न सिर्फ पैसे का मामला है और न जमीन का मामला है। यह दुनिया में वर्चस्व स्थापित करने की चीन की सोच का मामला है, जिसके तहत उसने भारत को अपने ही इलाके में विवाद में उलझाया है। इसी तरह से वह जापान और दक्षिण कोरिया को भी उलझाए रखना चाहता है। इसी मकसद से वह भारत विरोधी ताकतों को प्रश्रय दे रहा है और उनकी सहायता से अपना वर्चस्व बढ़ा रहा है। भारत जो भी सहयोगी गंवा रहा है वह अंततः चीन की गोदी में जाकर बैठ रहा है। नेपाल और ईरान इसके ताजा उदाहरण हैं। बांग्लादेश, श्रीलंका आदि देश भी भारत से ज्यादा चीन की बात सुन रहे हैं। एशिया की महाशक्ति बनने, रूस से दोस्ती करने और एशिया के छोटे-छोटे देशों की मदद से अफ्रीका से लेकर यूरोप तक अपने सामानों की पहुंच बनाने के बाद ही चीन विश्व की एकमात्र महाशक्ति के लिए वास्तविक चुनौती बन पाएगा।