राजनैतिक लेख

रंजीत कपूर का ‘बेगम का तकिया’

ByNI Political,
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रंजीत कपूर का ‘बेगम का तकिया’
गिरिजाशंकर रंजीत कपूर हिंदी रंगमंच का ऐसा नाम है, ऐसा आकर्षण है कि नाम सुनकर दर्शक नाटक देखने खिंचा चला आता है। एक ऐसा ब्रांड है जो नाटक के हिट होने की गारंटी बन गया है। यही वजह है कि जो नाटक वे 1977 से खेल रहे हैं, उसे देखने भी दर्शकों का हुजूम उमड़ पड़ता है, वह भी दोपहर 12 बजे के शो में। पिछले दिनों ट्रेजर आर्ट एसोसिएशन के बैनर तले श्रीराम सेंटर में रंजीत कपूर का नाटक ‘बेगम का तकिया’ खेला गया जिसे देखने का मौका मुझे भी मिला। दरअसल 23 फरवरी को युवा रंग निदेशक विकास बाहरी के नाटक ‘खिड़की’ का शो था। चार साल से यह नाटक चल रहा है लेकिन मैं अब तक देख नहीं पाया था। लिहाजा तय हुआ कि ‘खिड़की’ देखने दिल्ली जाना है। उन्हीं के ग्रुप प्रिज्म थियेटर का नया प्ले ‘वीर अभिमन्यू’ का पहला प्रदर्शन भी ‘खिड़की’ के तुरंत बाद होना था, जिसका निदेशन अभिनेता जतिन सरना ने किया। यानी दो प्ले एक साथ। दिल्ली जाने के पहले जानकारी मिली कि रंजीत कपूर ‘बेगम का तकिया’ कर रहे हैं जिसका शो भी उसी दिन 12 बजे दिन में है। ऐसा संयोग बहुत कम होता है कि एक ही दिन में तीन नाटक देखा जाये। वैसे तो भारंगम की स्क्रीनिंग में एक दिन में 10-12 नाटक देखना होता रहा है लेकिन वह लाइव परफार्मेंस नहीं होता। ‘बेगम का तकिया’ रंजीत कपूर ने पहली बार 1977 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की रेपटरी में किया था। उसे पहले शो के बारे में वे बताते हैं कि ओपन एयर में नाटक का प्रदर्शन होना था। प्रदर्शन के ठीक पहले जमके बरसात होने लगी। इतनी कि नाटक करना संभव नहीं था लेकिन दर्शक पानी में भींगते हुए बैठे रहे। तब लगा कि नाटक हार गया और दर्शक जीत गये। अगले दिन उन्हीं दर्शकों के लिये नाटक का प्रदर्शन हुआ। तब से अलग-अलग समय में अलग-अलग कलाकारांे के साथ वे यह नाटक करते रहे हैं। इस बार उन्होंने ट्रेजर आर्ट फाउंडेशन के कलाकारों को निर्देशित करते हुए ‘बेगम का तकिया’ किया जो एक बेहतरीन प्रस्तुति थी। रंजीत कपूर कहते हैं कि चौथी पीढ़ी के साथ मैं यह नाटक लगातार कर रहा हूँ। ट्रेजर फाउंडेशन की प्रमुख और इस नाटक की सहनिर्देशिका साजिदा का कहना था कि नाटक तो हम और जॉय लगातार कर रहे हैं लेकिन रंजीत सर जैसे लीजेंड्री के निर्देशन से हम सब को सीखने को मिलेगा, यही सोचकर उनसे आग्रह किया जिसे उन्होंने खराब सेहत के बाद भी स्वीकार कर लिया। साजिदा और जॉय दोनो एनएसडी के पास आउट हैं तथा दिल्ली के साथ-साथ अपने-अपने नेटिव प्लेस धामपुर (उ.प्र.) व मणिपुर में भी लगातार नाटकों के साथ वर्कशॉप व रिसर्च करते हुए नये रंगकर्मियों की पीढ़ी तैयार करने में लगे हुए हैं। रंगकर्मियों की कितनी बड़ी टीम या कहूँ फौज उनके पास है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘बेगम का तकिया’ में लगभग चार दर्जन कलाकार मंच पर व मंच से परे शामिल हैं। बहरहाल रंजीत कपूर मूलतः कवि व लेखक रहे हैं जिसकी वजह से उनकी लेखनी का अपना कमाल होता है और यह कमाल ‘बेगम का तकिया’ की स्िक्रप्ट में दिखता है जो उन्होंने स्वयं तैयार की है। उनकी स्िक्रप्ट और उनके निर्देशन की खूबी है कि लगभग ढाई घंटे का नाटक एक मिनट के लिये भी बोझिल नहीं लगता। नाटक के हर पात्र की अपनी शैली है जिससे भीड़ भरे स्टेज में भी हर एक्टर अपनी अलग पहचान के साथ उभरता है। नाटक में गीत, संगीत, नृत्य सब कुछ है लेकिन अपनी स्वाभाविकता और स्कि्रप्ट की जरूरत बन कर किसी भी नाटक की सफलता के मूल में होता है उसका टेक्स्ट या स्िक्रप्ट और यह नाटक खेले जाने के पहले ही सफलता की गारंटी लिये हुए था क्योंकि स्कि्रप्ट रंजीत कपूर जी ने स्वयं तैयार की थी। रंजीत भाई ने रंगमंच में हर तरह के प्रयोग किये हैं। स्पेनिश, फ्रेंच, इंग्लिश नाटकों के अनुवाद भी खेले तो आधुनिक व व्यंग्य नाटक भी खूब तैयार किये, सिवा पारसी शैली के जिसमें उनका वचपन बीता लेकिन उन्होंने हमेशा दर्शकों को सबसे उपर रखा जिसकी वजह से उनके नाम से ही दर्शक नाटक देखने आते हैं। रंगमंच के अलावा उन्होंने फिल्में भी डायरेक्ट की तो दर्जनों फिल्मों के संवाद व पटकथा भी लिखी तथा संगीत भी कंपोज किया। फिल्मी दुनिया का जाना पहचाना नाम होने के बाद भी उनकी पहचान रंग निर्देशक के रूप में ही है। थियेटर से फिल्मों में गये कलाकारों की पहचान उनके थियेटर के लिये नहीं, बल्कि उनकी फिल्मों से बनी। इससे उलट दर्जनों हिट फिल्मों के बाद भी थियेटर से उनके गहरे जुड़ाव ने रंजीत भाई को उनके थियेटर के लिये अधिक जाना जाता है। जिस वक्त वे ‘बेगम का तकिया’ डायरेक्टर कर रहे थे तब उनकी सेहत ठीक नहीं थी। उनके हाथ कांपते हैं और वे ज्यादा देर खड़े नहीं रह सकते। बावजूद इसके उन्होंने न केवल यह नाटक डायरेक्ट किया बल्कि वे एक नये प्रोडक्शन में लग गये हैं। इसलिये उन्हें हिंदी थियेटर का लीजेंड कहना बनता है। यह इस्तेफाक है कि कुछ दिनों पहले ही रंजीत भाई से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में आयोजित भारतरंग महोत्सव के दौरान आयोजित राष्ट्रीय सेमीनार के दौरान मुलाकात हुई थी। हम दोनों ही वहां वक्ता थे। यह जानकर कि मैं भोपाल से हूँ, वे लगभग चहक गये। मेरी पैदाइश भोपाल के पास सीहोर की है। पढ़ाई मेरी भोपाल में हुई, हाईस्कूल मैंने करेरा शिवपुरी से किया। उसके बाद लखनऊ चला गया फिर आगे का सफर। मैं सोचने लगा कि मध्यप्रदेश वालों को शायद यह पता ही नहीं होगा कि रंजीत कपूर मध्यप्रदेश में जन्मे और पले बढ़े हैं। ऐसा बहुत से कलाकारों के साथ है जो मध्यप्रदेश से हैं लेकिन अपने ही प्रदेश में याद नहीं किये जाते। तकनीकी कारणों से इस नाटक को शुरू होने में विलंब हुआ जिसका असर शाम को होने वाले विकास बाहरी के नाटकों पर पड़ा क्योंकि उनके प्ले भी श्रीराम सेंटर में ही होना थे। ‘खिड़की’ लंबा नाटक नहीं है लेकिन यह भी बेहतरीन स्िक्रप्ट और जतिन सरना तथा प्रियंका शर्मा जैसे मंजे हुए कलाकारों के चलते यादगार नाटक बन गया। चार साल बाद भी शो हाउस फुल हो रहा है तो बड़ा श्रेय दोनों कलाकारों के अभिनय को दिया जायेगा। मैं ऐसा देखता हूं कि जब निदेशक ही नाटककार भी होता है तो उस नाटक की प्रस्तुति हमेशा उम्दा होती है। विकास जितने अच्छे रंग निदेशक हैं उतने ही कुशल नाट्य लेखक। उनके नाटकों में लेखन व निर्देशन का तालमेल साफ दिखता है। ‘खिड़की’ इसका उदाहरण है। इसी रात उन्हीं के ग्रुप प्रिज्म थियेटर की नई प्रस्तुति ‘वीर अभिमन्यू’ की ओपनिंग थी। राधेश्याम कथावाचक के इस नाटक का निर्देशन जतिन सरना ने किया था। अभिमन्यू की कहानी चिरपरिचित है। नाटक में इसका कोई नया इंटरप्रेटेशन नहीं था लेकिन कास्ट्यूम और कलाकारों की संवाद अदायगी ने इसे बेहतरीन प्रोडक्शन बना दिया था। कोई सेट या अन्य तामझाम नहीं था लेकिन संगीत बहुत मौजू था जो दृश्यों को गहराई प्रदान करता है। संभवतः जतिन का यह पहला निर्देशित नाटक था जो एक नई संभावना जगाता है। वापसी की ट्रेन पकड़ने के कारण इस नाटक को थोड़ा छोड़कर उठना पड़ा लेकिन सिर्फ नाटक देखने दिल्ली आना मेरे लिये आनंददायक था और मुझसे अधिक उन रंगकर्मियों को आनंदकारक लगा जिनके नाटक देखने मैं दिल्ली गया था।
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