राजनैतिक लेख

बजट पर एक अमीर की व्यथा

ByNI Political,
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बजट पर एक अमीर की व्यथा
सुदर्शन कुमार सोनी अमीर किसी बात पर कभी अपनी व्यथा तो छोड़ो प्रतिक्रिया भी देना शान के खिलाफ मानते हैं। सरकार या सिस्टम कोई भी कदम उठाये उनकी सेहत पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ता है। जैसे हाथी कितना भी दुबला हो जाये रहेगा तो हाथी ही। उसी तरह अमीर पर सरकार कितने भी सरचार्ज सर से पैर तक लगा दें, उसकी ‘वेल्थ की हैल्थ’ पर बाल बराबर भी असर नहीं पड़ता। अमीर राष्ट्रीय मुद्दों पर बहसबाजी जैसे ‘मध्यमवर्गीय टाइप फालतू काम’ में समय नहीं जाया करता? सरकार से आवश्यक न्यूनतम बनावटी दूरी बनाये रखकर अपने दौलत कूटने के मिशन को चुपचाप अंजाम देता, रजाई ओढ़ खीर खाता रहता है। उल्टे उससे रोजगार के अवसर पैदा करने की वोटरी गरज के वास्ते सरकार नजदीकी खुद करने आजकल तरह तरह के पापड़ बेलती है। लेकिन अबकि बजट प्रस्तुति के बाद एक अमीर बजट में अमीरों की सतत उपेक्षा देख जज्बाती हो गया। उसका कहना था कि अमीरों पर ज्यादती के दिन अब लद गये हैं। इस देश में स्वतंत्रता के बाद से ही अमीर-गरीब के नाम पर उसी तरह पिसता रहा है जैसे कि योग्य अयोग्य, अनारक्षित आरक्षित, शक्तिशाली कमजोर व आदमी औरत के नाम पर पिसता रहा है। गरीबों का अघाने की सीमा तक शोषण करने के बाद अब वह ज्यादा ही जज्बाती हो कह रहा था कि सरकारंे स्वतंत्रता के बाद से ही उनका सतत शोषण करती रही है। लेकिन वे हमेशा चुप रहे। हर बात में उनका हक मार कर गरीब को दे दिया जाता है। सरकार की नीतियों के कारण अमीर व गरीब के बीच की एक समय की लम्बबी चौड़ी खाई में बिलावजह बाधा उत्पन्न हो रही है। अब देखें न कृषि क्षेत्र में जीभर के निवेश, सबके पक्के मकान की अनुदान की योजना, मनरेगा, खाद्यान्न सुरक्षा, गांव, मजदूर, किसान को कब तक तव्वजो दी जाती रहेगी? यह अमीरों को चिढ़ाने का काम है। अमीर सबको मालूम है कि गांव में, कृषि क्षेत्र में प्रायः नहीं पाये जाते। हां भीतर की इस बात का जिक्र मती करो कि अमीरी मंे कृषि क्षेत्र की आय का काफी योगदान रहता है? कृषि बस एकमात्र इस पैमाने पर चोखा धंधा है इसलिये तो सारे हम सयाने अमीरजादे किसान भी होते हैं। हां, लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि कोई धरतीपुत्र किसान अमीर नहीं होता। सात दशक के बाद भी देश में गरीबी विद्यमान रहना मानवता के खिलाफ एक अपराध जैसा ही है? लेकिन इस देश में इसी का हर ओर पूजन गान चलता है। बड़े-बड़े धुरंधर उसके पांव पखार महिमा मंडित करते और होते हैं। अमीर को यहां हर बुरी चीज की जड़ माना जाता है? जबकि यदि अमीर न हो तो गरीब भी जिंदा रहना मुश्किल हो जाये। यह कोई कब समझेगा? क्यों भूल जाते हो कि एक अमीर सौ, पांच सौ, हजार गरीब पालता है? सिस्टम अमीरांे के खिलाफ दिखने की कोशिश करता है जबकि पर्दे के पीछे सिस्टम चलाने वाले हम ही होते हैं या फिर जो नया फकीर ग्रासरूट से सिस्टम में आता है वह चंद दिनों में ही हमारी बिरादरी में आ अपनी रूट मजबूत कर लेता है। अरे सोचें कि यदि अमीर न हांे तो सरकारें तुलना का महत्वपूर्ण कार्य कैसे करेंगी? हम तो कहते हैं कि अमीरी की रेखा की भी सरकार व्याख्या कर दे। अमीर बगिया में गुलाब के फूल की तरह है, अमीरी के फूल के बिना तो समाज रूपी बगिया उजाड़ लगे। ब्लडीफूल यह क्यों नही समझते। यह अमीर सीमा के बाहर तक जा बकबका गया था। कितना फीलबैड होगा देशवासियों को और गरीबांे को ही यह सबसे ज्यादा अखरेगा। यदि विश्व के अमीरों की फोर्ब्स पत्रिका की सूची में सौ सबसे अमीरों मंे एक भी भारत का न हो। अभी तो कम से कम पांच सात भारतीय भी स्थान पा जाते हैं। तो यह तो सिद्ध हो जाता है कि यह केवल भुखमरों का देश नहीं है। यहां अटीलिया जैसी अट्टालिका में रहने वाले अमीरे आजम व हजार करोड़ की हवेली वाले बहुतेरे हैं, ये देश के मस्तक के कोहिनूर हैं। बाहर के देशों में इस फटेहाल देश की इमेज को चमकाने का पुनीत काम ऐसे अमीरे आजम ही कर रहे हैं। अमीर व अमीरी न हों तो गरीब व गरीबी के सामने कोई लक्ष्य ही नहीं रहेगा? आज अमीर को बाहर से कोसते समय भी आदमी अंदर से तो यही सोचता है कि काश वह भी उसके जैसा बन पाता? बल्कि मैं तो कहता हूं कि सरकार को अब अपनी तरह की एक अनूठी योजना चलानी चाहिये? इस योजना में सरकार अमीरों के संरक्षण के लिये उन्हें नख से शिख तक मदद करेगी। कई ऐसे अमीर हैं। बाप दादों के जमाने की दौलत को धीरे-धीरे शराब शबाब व कबाब में उड़ा अंदर से खोखले हो गये हैं। अब दिखावटी शानों शौकत ही बची है, सरकार के जरा से टेक से कम से एक अमीर तो लुप्त होने से बच जायेगा। ऐसी नीतियां बनाई जायें जिससे अमीर व गरीब की खाई घटने की जगह पूर्ववत बरकरार रहे। अकेले गिद्धों की नहीं गिद्ध दृष्टि युक्त अमीरों के संरक्षण की भी महती जरूरत है। मुद्रा बैंक की तरह अमीरों के लिये ‘अमीरी बैंक’ खोला जाना चाहिये। तो हम कहते हैं कि बजट में तो जो होना था, हो गया और हर बार होता रहेगा। अब सरकार अलग से अमीरांे के लिये कुछ कदमांे की घोषणा कर दे ताकि वे भी मुख्य धारा मंे बने रहें, अन्यथा धीरे-धीरे देश के अमीर माल्या नीरव की तरह सताये जाने पर रातों-रात विदेश गमन करने मजबूर होंगे। देश के लिये अमीरों का ब्रेन ड्रेन घातक होकर अर्थव्यवस्था के लिये ब्रेन हेमरेज की तरह है। कोई सरकार ऐसी नहीं रही जिसने अमीरों के लिये कभी बजट मे खुशखबरी दी हो? खुशखबरी तो दूर लेकिन हम पीडि़तों, दशकों से सताये हुओं पर ये लांछन तो न लगाया जाये कि एनपीए में अमीरों की हिस्सेदारी गरीबों की तुलना में ज्यादा है। यह खामख्वाह में सदियों से समरसता से रह रहे अमीर व गरीब के बीच साम्प्रदायिक तनाव व पहले से गहरी खाई को और गहरा करने का घृणित प्रयास है। इसकी जिसकी निंदा की जाये कम है। सोचने की बात है कि जो बेतहाशा दौलत कमायेगा तो एनपीए में योगदान करके ही तो करेगा। माल्या जी, नीरव जी का उदाहरण सामने है। कुल मिलाकर गंगू का मानना है कि गिद्धों व अमीरों दोनों का संरक्षण जरूरी है। वैसे भी अवसरों पर गिद्ध दृष्टि रखने वाला आदमी ही अमीर बनता है। मिलियन डॉलर का प्रश्न यह है और अमेरिका का उदाहरण सामने है कि अमीरी को जब तक पूूजा नहीं जायेगा तो यह आनेवाली नहीं और जब तक गरीबी को राजनैतिक पाखंडवश पूजा जाता रहेगा तो यह जाने वाली नहीं।
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