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राजस्थान की रणनीति मानक हो सकती है

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राजस्थान की रणनीति मानक हो सकती है
कोई एक रणनीति कभी भी राजनीति में हर जगह नहीं लागू की जा सकती है। राज्यों के हिसाब से, समय के हिसाब से, प्रतिद्वंद्वी के हिसाब से और अपनी ताकत के हिसाब से रणनीति बदलती रहती है। पर आक्रमण को बचाव की रणनीति मानने का पुराना सिद्धांत लगभग हमेशा कारगर होता है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसी को अपना हथियार बनाया। उन्होंने पहले दिन से आक्रामक तेवर दिखाए। चाहे कांग्रेस से बागी हुए नेता सचिन पायलट और उनके साथ गए विधायकों का मामला हो या भाजपा के परदे के पीछे से खेल को संचालित करने का मसला हो या संवैधानिक संस्थाओं का मामला हो, गहलोत ने हर मामले में आक्रमण की रणनीति अपनाई। इसे प्रीइम्प्ट यानी आगे बढ़ कर पहल अपने हाथ में रखने की राजनीति भी कर सकते हैं। यह हकीकत है कि राजनीतिक पहल, जिसके हाथ में होती है अंतिम जीत उसकी ही होती है। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं पर ‘पहले मारे सो मीर’ वाली कहावत लगभग ठीक ही होती है। राजस्थान में भी यहीं होता दिख रहा है। वहां मुख्यमंत्री ने पहल अपने हाथ में रखी। अभी तक दो हफ्ते की राजनीतिक उथलपुथल के बीच एक भी मौका ऐसा नहीं आया, जब ये लगा हो कि पहल उनके हाथ से निकल गई है और वे प्रतिक्रिया दे रहे हैं। अभी तक हर बार उन्होंने पहल की है और दूसरे खेमे को प्रतिक्रिया देनी पड़ी है। प्रतिक्रिया कैसी है, उसका क्या असर हुआ यह अलग बात है पर गहलोत ने पहल अपने हाथ से नहीं छोड़ी है। यहीं काम मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने नहीं किया था। पहले उनके हाथ से निकल कर भाजपा और ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ में चली गई थी। मध्य प्रदेश में या उससे पहले कर्नाटक में कांग्रेस के नेता रूठे हुए या बागी हुए विधायकों को मनाने गए थे। राजस्थान में मुख्यमंत्री ने विधायकों को मनाने के लिए किसी को नहीं भेजा, बल्कि उनसे पूछताछ करने के लिए पुलिस की टीम गई। यह अपने आप में एक बड़ा फर्क है। मध्य प्रदेश के विधायकों को मनाने के लिए कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता कर्नाटक गए तो कर्नाटक के कांग्रेस विधायकों को मनाने के लिए पार्टी के बड़े नेता मुंबई गए थे। इसके उलट राजस्थान के विधायकों से पूछताछ करने के लिए स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप, एसओजी की टीम गई थी। अब भी एसओजी की टीम गुड़गांव के होटलों में विधायकों को तलाश ही रही है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात कर ली। उन्होंने पहले मोदी को एक चिट्ठी लिखी और फिर उनसे फोन करके बात की। उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री से राज्यपाल की शिकायत की। इस तरह उन्होंने पहल करके राजस्थान सहित सारे देश के लोगों को बता दिया कि राज्य में ऐसा संकट है, जिसके बारे में मुख्यमंत्री ने सीधे प्रधानमंत्री को जानकारी दी है। यानी प्रधानमंत्री इस पूरे प्रकरण में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल हो गए। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बताए रास्ते पर चलते हुए अशोक गहलोत ने आठ करोड़ राजस्थानियों का नैरेटिव बनवा दिया। जैसे मोदी हमेशा छह करोड़ गुजरातियों की बात करते रहे और अब 130  करोड़ भारतीयों की बात करते हैं वैसे ही गहलोत ने और उनकी देखा-देखी कांग्रेस के सारे नेताओं ने राज्य के राजनीतिक संकट को आठ करोड़ राजस्थानियों के सम्मान के साथ जोड़ दिया। यह उप राष्ट्रीयता की राजनीति का ही एक अलग रूप है। असल में गहलोत ने पहले दिन से यहीं रणनीति अपनाई। उन्होंने फोन टेप कराने के आरोपों की जोखिम लेते हुए दो बिचौलियों को पकड़ा और तीन निर्दलीय विधायकों के पैसे के लेन-देन की बात को उजागर कर दिया। इस बात को दबाने-छिपाने की बजाय उन्होंने यह सच सार्वजनिक किया कि दो लोग विधायकों से खरीद-फरोख्त की बात कर रहे हैं। इसी सिलसिले में गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आ गया। यह अनायास नहीं था। गहलोत को पता है कि राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का खेमा शेखावत को प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखता है। सो, एक तीर से दो शिकार हो गए। शुरू में ऐसा लगा कि विधायकों को मनाने की बजाय कांग्रेस उनको नोटिस क्यों जारी करा रही है या पायलट और उनके साथ गए मंत्रियों को क्यों पद से हटाया जा रहा है। पर अब ऐसा लग रहा है कि यह रणनीति भी कुछ हद तक काम कर ही गई है। इस पर भी विधायकों को प्रतिक्रिया देनी पडी और सचिन पायलट खेमे की ओर से जो वकील खड़े हुए उससे यह भी साबित हो गया है कि भाजपा परदे के पीछे से उनकी मदद कर रही है। इसके बाद एक एक करके गहलोत ने सचिन पायलट को लेकर कई बातें सार्वजनिक कर दीं। हर बात पर सचिन पायलट खेमा और भाजपा सिर्फ प्रतिक्रिया दे रहे हैं। उन्होंने कोई ऐसी पहल नहीं की है, जिस पर गहलोत को प्रतिक्रिया देनी पड़ी है। उन्होंने बहुत होशियारी से यह नैरेटिव भी स्थापित कर दिया है कि उनके पास बहुमत है और वे साबित करने के लिए विधानसभा का सत्र बुलाना चाहते हैं, लेकिन केंद्र सरकार के इशारे पर राज्यपाल इसकी मंजूरी नहीं दे रहे हैं। आगे क्या नतीजा होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जिन लोगों के हाथ में सर्वोच्च ताकत है वे अगर बांह मरोड़ कर सत्ता छीनने की कोशिश करेंगे तो उसे कोई टाल नहीं सकता है, कम से कम अभी के समय में। परंतु अगर मामला राजनीतिक और रणनीतिक दांव-पेंच से आगे बढ़ेगा तो उसमें अभी पायलट खेमा या पूरी भाजपा गहलोत का मुकाबला नहीं कर पाएगी। उन्होंने ऐसी स्थिति बना दी है, जिसमें वे अनिवार्य रूप से जीतेंगे और अगर किसी वजह से हारे भी तो उनकी और कांग्रेस की बाजी मात नहीं मानी जाएगी। वे ‘मारते-मारते मरेंगे’, जिससे अंततः धारणा उनके पक्ष में ही बनेगी।d
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