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स्वास्थ्य में निवेश का सही समय

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स्वास्थ्य में निवेश का सही समय
भारत सरकार ने कोई दो हफ्ते पहले दावा किया था कि उसने कोरोना वायरस के बढ़ते ग्राफ को चपटा कर दिया है। प्रेस कांफ्रेंस में फ्लैटनिंग द कर्व का दावा बड़े गर्व से किया गया था। हालांकि हकीकत यह है कि उसके बाद ग्राफ तेजी से बढ़ता गया। भारत सरकार से उलट केरल की राज्य सरकार ने कभी ऐसा दावा नहीं किया पर अब हकीकत है कि उसके यहां कर्व चपटा होने लगा है। मरीजों की संख्या बढ़ने की दर बहुत कम हो गई है और इलाज से ठीक होने वालों की संख्या बढ़ गई है।सोचें, जिस राज्य में सबसे पहला कोरोना का मरीज आया, जहां सबसे ज्यादा खाड़ी में काम करने वाले लोग हैं और जहां बुजुर्गों की आबादी देश के अनुपात से चार फीसदी ज्यादा है, वहां सिर्फ 387 लोग संक्रमित हुए और सिर्फ दो लोगों की जान गई। संक्रमितों में से 218 लोग इलाज से ठीक हो गए और अब सिर्फ 167 लोगों का इलाज अस्पताल में चल रहा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि केरल की सरकारों ने स्वास्थ्य में निवेश किया है। अस्पताल बनवाएं हैं, मेडिकल कॉलेज खोले हैं, नर्सिंग के इंस्टीच्यूट खोले और लोक स्वास्थ्य को प्राथमिकता बनाया। और यह काम पांच-दस साल में नहीं हुआ, बल्कि आजादी के बाद से ही यह काम चल रहा है।सो, अब राष्ट्रीय स्तर पर इस मॉडल को लागू करने का सही समय आ गया है। हकीकत यह है कि भारत में कभी भी स्वास्थ्य और शिक्षा सरकारों की प्राथमिकता में नहीं रहा। विकास का मतलब भारत में हमेशा बिजली, सड़क और पानी को माना गया और अफसोस की बात है कि उसमें भी हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है। ध्यान रहे इस साल भारत सरकार के बजट में 67 हजार करोड़ रुपए से थोड़ा ज्यादा पैसा स्वास्थ्य के लिए आवंटित किया गया है। पिछले साल के संशोधित बजट के मुकाबले सिर्फ 5.7 फीसदी की बढ़ोतरी की गई। उससे पहले साल 15 फीसदी की बढ़ोतरी की गई। इसके बावजूद सरकार जीडीपी का डेढ़ फीसदी भी स्वास्थ्य पर खर्च नहीं कर रही है। दिल्ली और एकाध राज्यों के अपवाद को छोड़ दें तो बाकी राज्य भी इसी अनुपात में स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। अगर भारत सरकार और राज्यों की सरकारें कोरोना वायरस के मौजूदा संकट से कुछ सबक लेती हैं व अमेरिका और यूरोपीय देशों की स्वास्थ्य सुविधाओं का आकलन करते हुए अपने बारे में तुलनात्मक अध्ययन कराती हैं तो पता चलेगा कि उसे इस समय अपनी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की कितनी जरूरत है। सरकार अगर इस समय कोरोना के बहाने ही स्वास्थ्य सेक्टर में निवेश बढ़ाती है तो इसके दो फायदे होंगे। पहला फायदा तो यह होगा कि आगे आने वाली किसी भी महामारी से निपटने की पूर्व तैयारी हो जाएगी। यह न सोचा जाए कि कोरोना आखिरी महामारी है। पिछले दो दशक में सार्स, मर्स, इबोला, एचआईवी, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू जैसे अनगिनत वायरस दुनिया में पनपे हैं और हजारों लोगों की इनसे मौत हुई है। इसके अलावा प्राकृतिक और दूसरी मानव निर्मित आपदाएं अलग हैं। सो, पहला फायदा तो यह होगा कि भारत का स्वास्थ्य सिस्टम बेहतर होगा और किसी भी संकट से लड़ने के लिए तैयार होगा। दूसरा फायदा यह होगा कि पहले से चल रही आर्थिक मंदी में इससे अर्थव्यवस्था में थोड़ी तेजी आएगी। जानकारों का कहना है कि इस समय भारतीय स्वास्थ्य सिस्टम में करीब छह लाख करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत है। अगर सरकार इसे गंभीरता से लेती है और कोरोना से सबक सीख कर इसका आधा भी इसमें निवेश के बारे में सोचती है तो बड़ा फायदा हो सकता है। ध्यान रहे सरकार बुनियादी ढांचे के विकास में एक सौ लाख करोड़ रुपए के निवेश की बात करती रही है। रोड में दो लाख करोड़ रुपए के निवेश की चर्चा हरदम सुनाई देती है पर यह सुनने को नहीं मिलता है कि अस्पताल, मेडिकल कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज बनाने में दो लाख करोड़ रुपए का निवेश होगा या सरकार मेडिकल लैब बनाने पर इतने हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी, रिसर्च में खर्च बढ़ाएगी, मेडिकल उपकरण बनाने वालों को प्रोत्साहन दिया जाएगा और दवाओं की फैक्टरियां लगेंगी। भारत के हेल्थ सेक्टर की हकीकत सबको पता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्लुएचओ द्वारा बनाया गया शायद ही कोई पैमाना होगा, जिसको भारत पूरा करता है। डब्लुएचओ के मुताबिक प्रति एक हजार नागरिक पर दो डॉक्टर होने चाहिए पर भारत में यह आंकड़ा एक हजार नागरिक पर 1.34 डॉक्टर होने का है। इसे भी अगर ग्रामीण और शहरी इलाकों में अलग अलग बांटेंगे या दक्षिण और उत्तर व पूर्वोत्तर के राज्यों के आधार पर बांटेंगे तो पता चलेगा कि उत्तर व पूर्वोत्तर भारत और ग्रामीण इलाकों में प्रति एक हजार पर डॉक्टर की उपलब्धता एक भी नहीं है। सिर्फ चार या पांच राज्य हैं, जो इस पैमाने को पूरा करते हैं। ऐसे ही प्रति एक हजार व्यक्ति पर भारत में बेड की उपलब्धता बहुत कम है। भारत में एक हजार आदमी पर 0.55 बेड हैं यानी करीब दो हजार लोगों पर एक बेड है। इसके उलट इटली में एक हजार लोगों पर 4.2 बेड हैं। अमेरिका में 2.8 और चीन में 4.3 बेड्स हैं। जब आप इसे इलाकेवार देखेंगे तो और भी हैरान करने वाला आंकड़ा है। जैसे बिहार में एक हजार की आबादी पर 0.11 बेड हैं यानी वहां दस हजार आदमी के पीछे एक बेड है। देश के 70 फीसदी इलाकों में राष्ट्रीय औसत से कम बेड्स हैं। लब्बोलुआब यह है कि भारत में डॉक्टर नहीं हैं, बेड्स नहीं हैं, आईसीयू बेड्स की और भी कमी है, स्वास्थ्य उपकऱण नहीं हैं, रिसर्च नहीं के बराबर है। सो, कोरोना वायरस की महामारी के बहाने सरकार को चाहिए कि वह इन सब चीजों में सुधार करे।
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