पृथ्वी मुश्किल में है और भविष्य धूमिल क्योंकि हर साल सबसे गर्म वर्ष हो रहा है और हर साल सबसे ठंडा वर्ष भी होता जा रहा है।….और सीओपी-26 भी फेल। बावजूद इसके ग्लासगो में जो हुआ वह एक पीढ़ी को अतिवादी बनाने तथा बहुत कुछ नए की शुरुआत है।..युवा ऐक्टिविस्ट भूमिका निभा रहे हैं। इससे राजनीतिक क्षेत्र में भी बदलाव आ रहा है। उदाहरण के लिए, जर्मनी में नीति और पैमाने में बुनियादी बदलाव है। (cop26 conference failed glasgow)
मैं शर्त लगाती हूं आपको पता नहीं होगा कि तुवालु कहां है।
मैं यह शर्त भी लगाती हूं कि आपको नहीं पता होगा कि क्लोवर होगन या त्क्साई सुरुई कौन हैं।
इन सब से अलग, मैं शर्त लगाती हूं कि हाल में ग्लासगो में संपन्न कॉप (सीओपी-26) में 25 हजार लोगों ने सम्मेलन के बाहर विरोध प्रदर्शन किया और दुनिया भर के युवा एक्टिविस्ट की ऑनलाइन याचिका पर 18 लाख दस्तखत हुए। पर शायद इसकी भी जानकारी आपको नहीं हो।
2015 में नई दुनिया जागरूक नहीं थी। लिहाजा, पेरिस करार के समय दुनिया भर के नेताओं को ‘पृथ्वी का रक्षक’ कहा गया था। उस समय इन लोगों ने वादा किया था कि वैश्विक तापमान को दो सेंटीग्रेड कम किया जाएगा और उसे औद्योगीकरण से पहले के स्तर पर ले आया जाएगा। इसे फिर डेढ़ सेंटीग्रेड पर सीमित करने की कोशिश होगी। तब इस वादे की जमकर तारीफ हुई और ‘सरकारों द्वारा मुकर्रर वार्ताकारों’ को ‘पृथ्वी का रक्षक’ कह कर उन्हें ठीक ही सम्मानित किया गया।
मगर अब फास्ट फॉरवर्ड में 2021 में चले आए और दुनिया देखे। जंगलात जल रहे हैं। पेड़ घट रहे हैं, टूट और गिर रहे हैं। समुद्र घुट रहे हैं हांफ रहे हैं। विशाल-शक्तिशाली पहाड़ फिसल रहे हैं, लोग दब कर मर रहे हैं। बेमौसम बारिश, भारी बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट और फिर वह महामारी, जिसने सचमुच जन-जीवन को रोका और अनिश्चित बना दिया है। निर्विवाद रूप से पृथ्वी अब मुश्किल में है और भविष्य धूमिल लग रहा है क्योंकि हर साल सबसे गर्म वर्ष हो रहा है और हर साल सबसे ठंडा वर्ष भी होता जा रहा है।
जाहिर है चिंता (कॉप) शुरू होने से ले कर अब तक के 30 वर्षों में मानवता के अस्तित्व के खतरे को दूर करने के लिए दुनिया भर के निर्वाचित नेताओं ने स्पष्ट रूप से कुछ ज्यादा नहीं किया है। खोखले वादों को प्रचार देने के अलावा, 2015 के पेरिस में भी कुछ नहीं और 2021 में भी नहीं।
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तभी ‘पर्यावरण चिंता‘ अब भयावह है। किशोरों के साथ वयस्क भी अवसाद और ओसीडी (ऑब्सेसिव कंपलसिव डिसऑर्डर) में पाए जा रहे हैं क्योंकि उनके आसपास का अधिवास, परिवेश रोता, खराब होता, जहरीली हवा और खत्म होता हुआ है। प्रकृति का दम घुट रहा है तो लोग भी घुट रहे हैं।
“56 प्रतिशत युवा मानते हैं कि उनका भविष्य चौपट है”, यह बात सीओपी-26 में एनवाईटी क्लाइमेट हब में 22 साल के जलवायु ऐक्टिविस्ट क्लोवर होगन ने कही। 2018 में जब 15 साल की ग्रेटा थनबर्ग ने हमारे स्क्रीन्स और मस्तिष्क पर कब्जा किया तो काफी आलोचना हुई। इसलिए कि ‘उसे भला क्या पता है, वह सिर्फ 15 साल की है’। ‘वह तो चर्चा में आना चाहती है इससे ज्यादा कुछ नहीं’। ‘उसके पास क्या ताकत है दुनिया को बदलने के लिए’।
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बहरहाल, अब 2021। ग्लासगो में क्लाइड नदी के साथ स्कॉटिश इवेंट कैम्पस के बाहर के दृश्य। लगेगा नई दुनिया की जिस शक्ति को उसने जागरूक और इकट्ठा किया है उसी का जमावड़ा। जलवायु सम्मेलनों के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि संबंधित सुर्खियों में, ग्लासगो सम्मलेन ‘सफल’ था युवा आबादी की जीवंत भागीदारी से। दुनिया भर के नेताओं के ‘पृथ्वी के रक्षक’ होने के हल्ले की जगह युवाओं की मौजूदगी से बने विश्वास पर अधिक फोकस। ठीक भी है। यदि कुल आबादी के चालीस प्रतिशत युवाओं ने चीखते-चिल्लाते और प्रदर्शन करते अपनी दिलचस्पी को, सरोकार को दर्शाया है तो वे लोग दबाव महसूस करेंगे जो अभी भी मानने को तैयार नहीं हैं कि ‘जलवायु परिवर्तन’ है।
ऐसे ही ग्लासगो सम्मेलन संधि पर दो सौ देशों के हस्ताक्षर की वैसी खबर नहीं हुई जैसी तुवालु के विदेश मंत्री सिमोन कोफे के भावनात्मक भाषण की हुई। उनका सूट-टाई पहन कर घुटने तक समुद्र के पानी में खड़े होकर दिया भाषण। ताकि दुनिया जाने कि कम ऊंचाई पर बसा प्रशांत सागर का उनका द्वीप देश जलवायु परिवर्तन का प्रभाव झेलने वाले अग्रिम पंक्ति के देशों में है। द्वीप देश तुवालु पश्चिम मध्य प्रशांत सागर में ऑस्ट्रेलिया और हवाई के बीच में है। वह खतरे में है। तुवालु नौ प्रवालद्वीप (atolls) को मिलाकर बना है और इसकी आबादी करीब 11 हजार है। वहां सबसे ऊंची जगह समुद्र तल से सिर्फ साढ़े चार मीटर ऊंची है। इस तरह, जलवायु परिवर्तन के लिहाज से यह खासतौर से खतरे में है। ऑस्ट्रेलिया सरकार की 2011 की एक रिपोर्ट के अनुसार 1993 से समुद्र तल हर साल करीब आधे सेंटीमीटर के हिसाब से बढ़ रहा है। अपने कई पड़ोसियों की तरह तुवालु यह चेतावनी दे रहा है कि वैश्विक कार्रवाई के बिना वह देश, उसकी पूरी भूमि डूब जाएगी।
बकौल तुवालु के वित्त मंत्री सीव पयेनियु, ‘यह कोई कल्पना नहीं है, यह भविष्य में होने वाला सत्य है। हमारी जमीन तेजी से गायब हो रही है। तुवालु वास्तव में डूब रहा है। हमें अब कार्रवाई करनी चाहिए’।
‘इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका ने बताया है कि सीओटू का स्तर गुस्साए अंदाज में बढ़ रहा है। सदियों तक वह 275 पीपीएम से 285 पीपीएम के बीच रहा। सन् 1910 में वह तीन सौ पीपीएम हुआ। और 2020 आते-आते यह 412 पीपीएम था। यह द्रुत वृद्धि है। ऐसी वृद्धि, जिससे बर्फ-ग्लेशियर पिघल रहे हैं और तापमान बढ़ रहा है। तबाही आम हो गई है और नेता हैं कि मिलने-जुलने, गपशप करने, टहलने और अंत में एक पुराने करार से आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।
तभी ‘द गार्जियन’ के टेबटेब्बा फाउंडेशन (इंडीजिनस पीपुल्स इंटरनेशनल सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च एंड एजुकेशन) के डायरेक्टर, विक्टोरिया टॉली कॉरपज के शब्दों में- दुनिया को जिस पारिस्थितिकी की जरूरत है उसकी चिंता में कई स्थानीय नेताओं और ऐक्टिविस्ट्स की जान गई है। बावजूद इसके सीओपी-26 में भी डेढ़ सेंटीग्रेड के लिए कोई स्पष्ट रास्ता बनाने के लिए कुछ खास नहीं किया गया है। ना ही प्रभावित हो सकने वाले देशों और लोगों को संकट की चिंता में मोड़ा गया।
उस नाते ग्लासगो के जलवायु सम्मेलन का कुल मतलब? जीरो।
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द्वीप देशों को उत्सर्जन से तत्काल कोई राहत नहीं। वहीं विकासशील देश ज्यादा पैसों के लिए रोते रहे। फॉसिल ईंधन के उत्पादक नहीं चाहते कि वे अपना निर्यात रोकें। संपन्न देश अपने द्वारा हुए नुकसान का हर्जाना देने को तैयार नहीं। मतलब ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट पर सब दस्तखत करके निकल लिए। ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट के नाम पर सिर्फ सिद्धांतों के एक सेट और जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई के लिए लक्ष्य की पेशकश भर। करार सिर्फ अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक दबाव के लिए एक लीवर जैसा। इस तरह दो सप्ताह की उम्मीद का अंत दुनिया के दिल में दर्द की तरह।
इसलिए कैसे माना जाए कि सीओपी-26 एक सफलता?
वह सिर्फ हवाबाजी में। लोग आए मिले-जुले, बतियाये, फोटो खिंचवाए, कुछ कागजों पर दस्तखत किए। चर्चा की और आरोप किसी दूसरे पर इधर-उधर। इन्हें ही अगले साल के सीओपी-27 में दोहराया जाएगा जो मिस्र में होगा और संभवतः एक अन्य कदम के साथ समाप्त होगा।
बावजूद इसके सीओपी-26 से जो हुआ वह एक पीढ़ी को अतिवादी बनाने तथा बहुत कुछ नए की शुरुआत है। फिर भले सीओपी-27 आते-आते हम और ज्यादा ठंड वाली सर्दी और सबसे ज्यादा गर्म गर्मी का सामना करें। पर कल के ‘धरती के रक्षकों’ से नई उम्मीद इसलिए है क्योंकि युवा मुखर बन रहे हैं। युवा ऐक्टिविस्ट भूमिका निभा रहे हैं। इससे राजनीतिक क्षेत्र में भी बदलाव आ रहा है। उदाहरण के लिए, जर्मनी में नीति और पैमाने में बुनियादी बदलाव है और राजनीतिज्ञों ने समझ लिया है कि अब ग्रीन राजनीति, हरित नीतियों के बिना चुनाव नहीं जीते जा सकते। कोई दो राय नहीं है कि धीरे ही सही नई क्रांति की स्थितियां बन रही हैं। वहीं नए समय में परिवर्तन की शायद नई राजनीतिक शक्ति बन जाए।