बेबाक विचार

उम्मीद, विस्फोट, और गुजरा 2021..

Share
उम्मीद, विस्फोट, और गुजरा 2021..
बारह महीने!  साल भरोसे से शुरू हुआ। पर मार्च खत्म होते-होते वायरस झेला और भय व मृत्यु के आघात भी। प्रोपेगेंडा में बहे, तालिबान का धमाका सुना और अनिश्चितता- थकावट के बाद ओमिक्रॉन का अचानक धमाका।...कही बाईस वैसा ही तो नहीं होगा जैसा इक्कीस हुआ। मेरा, शायद सबका साल उम्मीद से शुरू हुआ था। कोविड प्रतिरोध टीका बनने की खबर आ गई थी। वह खबर भरोसा बनाने वाली थी। उत्साह लौटा।  टीका परीक्षण में पास हुआ तो राहत की सांस के साथ कौतुक बना। हम सब में वैक्सीन, चिकित्सा के बारे में जानने की उत्सुकता बनी। कम्प्यूटर का माउस घुमाया, मेडिकल जर्नल के पन्ने पलटे, सोशल मीडिया पर स्क्रोल किया, टीके सुरक्षित है या नहीं? फिर परिचित चिकित्सकों की राय जानी, मेडिकल न्यूज पर ध्यान देना शुरू किया और जल्द से जल्द टीका लगवाने का इरादा बना। धीरे-धीरे शुरू हुए सब तरफ़  टीके लगने, पहले बुजुर्गों के। मार्च आते-आते मूड कैजुअल, ‘फ़्री विल’ सा हो गया था। बुजुर्गों का टीकाकरण शुरू हुआ। कोविड केसेंज कम होने लगे थे। 'नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने कोविड की क्रूर आंधी का सामना किया' जैसी बातें समझाई जाने और समझी जाने लगी। वह महिना ‘लेड बैक’ व्यवहार के, लापरवाह होने का था।  सबमें बाहर निकलने् की हौड सी हो गई। बेपरवाह, मास्क नीचे कर, खुली हवा का आनंद लेते ‘ताजगी’ में झूमने लगे। नए साल के जनवरी और फरवरी के सुहाने महीने मार्च में पश्चिम बंगाल के चुनावी दंगल की दिलचस्पी बनवा बैठे। माहौल और मूड दोनों रिलेक्स!   कोरोना से ध्यान हटा। वायरस के प्रतिबंधों में कटौती। लोग  बंगाल के चुनाव में ममता बनर्जी की ललकार, अमित शाह की दहाड़ और मीडिया में भगवा की जीत के हल्ले में गदगद।  जश्न का माहौल सा बन रहा था, और जनता अपने को खतरे से बाहर, स्वतंत्र महसूस करते हुए चुनावी ताल और सुर में खोती हुई। ऐसा लग रहा था मानों अब सब ठीक! हम भूल गए थे कि 2020 से हमने निश्चित रूप मे महामारी अनिश्चितता व खौफ के साये  में ही सन् 2021 में प्रवेश किया है। उस साये की मैं मार्च आखिर में शिकार थी। पता नही कैसे मार्च के अंत से पहले मैं कोविड की शिकार हुई। एक साल तक वायरस को चकमा देते हुए, हमेशा डबल मास्क पहने रहने, वैक्सीन के पहले टीके की तैयारी से ठिक पहले मेरा कोरोना वायरस से सामना हुआ। होली फीकी व बेरंग हो गई। अपने कमरे की चारदीवारी में बंधी, उलझी और फंसी में कई दिन झूझती रही। एक-एक दिन काटना मुश्किल। पहले तो मैं मानने को ही तैयार नहीं थी कि मैं वायरस की शिकार। मेरे लक्षण फ्लू जैसे, स्वाद और गंध बरकरार और ऑक्सीजन का स्तर भी सामान्य तब वायरस कैसे? पर कोविड़-19 धूर्त, काईयां है। सातवें दिन वह मेरे फेफड़ों तक पहुंच गया। मेरे डॉक्टर ने तुरंत मुझे स्टेरॉयड दिया। अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत बताई। पर में लड़ी। हॉस्पिटल ना जाने का इरादा दृढ किया। अपने कमरे में सिमटे रह, खतरे का मुकाबला करने को तैयार और सकारात्मकता को अपना कवच बनाया। Read also बीमार व्यवस्था पर कोरोना की मार वे दिन, वे सात दिन सिर्फ़ ऐसी फ़िल्मों, ऐसे टीवी शो देखने के थे जिससे हँसी मज़ाक़, गुदगुदी और ईज़ी गोइंग में धडकन चले। भाप, इन्हेल- इक्स्हेल…थर्मामटर पर तापमान व ओक्सीमीटर पर ऑक्सीजन का उतार-चढ़ाव देखना, काढ़ा पीना और वक्त काटना वही चलता रहा। मन ही मन तय करना कि ठीक हो जाए तो फिर फलां-फलां.. ढेर सारे काम करने है। सौभाग्य मेरा जो समय अनुकूल, अच्छा था। डॉक्टर हमेशा उपलब्ध थे। मेरा साथी परम धैर्यवान और  माँ की रसोई से गर्म और मनभावक खाना। फिर अजीत अंकल भी, जो हर दो दिन में फोन करके याद दिलाते थे कि '4-5 रोटियाँ अधिक खाओ, खूब पियो और बार-बार ऑक्सीमीटर मत देखो'। मैं 13 दिन बाद कमरे से बाहर निकली। ...और जैसे ही मैंने अपने कमरे से बाहर कदम रखा तो खबरों का रैला कि भारत कोरोना वायरस के डेल्टा वैरिएंट की तबाही में, बीमारी व मौतों की रूलाई चौतरफा!    महा विस्फोट। आतंक, क्रोध, चिंता, डर ने हम सभी को जकड़ रखा था। परिवार, मित्र, साथी, एक-एक करके आसपास के सभी लोग बीमार पड़ने लगे। दवाएं अनुपलब्ध। फिर डॉक्टर भी अनुपलब्ध। ट्वीट, फोन कॉल, मैसेज, डीएम, और ट्वीट, रेमडेसिविर, फैबीफ्लू, अस्पताल में हर जगह, गुस्सा, आक्रोश, असंतोष, भयानक दुःस्वप्न … मौत, ने हम सभी को फंसा लिया। अप्रैल भारी, दुख और भय से भरा हुआ। मई भारीपन से और गहरा हो गया,। मिजाज उदास। आघात और दर्द के विलाप से दुखी माहौल। हम डर के आगोश में आ गए। धुएं और धुंध में जून व जुलाई गुजर गया। 74वां स्वतंत्रता दिवस के आते आते, समय रहस्यमय अंदाज में हुआ सामान्य। लॉकडाउन, कर्फ्यू, पाबंदियां, प्रतिबंध हट गए; जनता ने फिर बाहर निकलना शुरू किया, तब भी टीकाकरण नंबर एक प्राथमिकता। आखिरकार ओलंपिक आखिरकार आयोजित हुए और भारत ने इसमें एक स्वर्ण (एथलीट में), दो रजत, चार कांस्य के साथ 48वां स्थान हासिल किया (चार दशक में भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन)।एक उत्साह और उमंग माहूल बनाने की नन्ही सी दस्तक थी। तभी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का लाल किले की प्राचीर से कहा यह वाक्य सुना "कोरोनावायरस संकट एक बड़ा संकट है, लेकिन इतना बड़ा नहीं है कि हमें आत्मानिर्भर भारत के निर्माण से रोक सके।" सातवीं बार राष्ट्र को संबोधित कर सकारात्मकता बनाने का एक और प्रयास। भारत जब आत्मनिर्भरता की ओर बात करता हुआ था तो पड़ौसी अफगानिस्तान पर अचानक तालिबान का झंडा।(2022 और उससे आगे के लिए निश्चित ही मुश्किल समस्या)। सितंबर आशावाद लेकर आया क्योंकि डब्ल्यूएचओ के मुख्य वैज्ञानिक ने दावा किया कि 'भारत कोविड के स्थानिक चरण में प्रवेश कर रहा हो सकता है।' सब सामान्य, सहज हो जाने की भावना चारों ओर फैल गई। अक्टूबर में भारत ने पहली और दूसरी खुराक सहित 100 करोड़ कोविड टीकाकरण का लक्ष्य हासिल किया। राहत, कुछ उल्लास और आगे बढ़ने का अहसास। दिवाली हर्षोल्लास के साथ आई लेकिन जश्न कम रहा। कई घरों में रोशनी नहीं हुई। गमी थी। वे घर निराशा और अंधेरे में डूबे रहे, चमक गायब थी। पर आम तौर पर  कामना थी कि अगला साल अच्छा हो। हम सब आगे बढ़ चले। दूसरी लहर के बाद, शोक और उपचार से गुजरने के बाद बुरा वक्त गुजर गया के भाव  नई शुरूआत की और बढ़ने लगे। दुनिया खुलने लगी। घर से काम के आराम से बाहर निकल दफ्तर वापिस आने का फ़रमान जारी होने लगा। स्कूलों और कॉलेजों के दरवाजे खुलने शुरू हुए। जिम, सिनेमा, शादियों, समारोहों में चेहरे बढ़ने लगे। अचानक सुना कि प्रधानमंत्री ने नए कृषि कानूनों को निरस्त करने का फैसला किया। किसानों का एक साल पुराना विरोध आंदोलन खत्म हुआ। राजनीति की कयासबाजी शुरू हो गई।  समाचारों में उत्तर प्रदेश का छाने लगा। योगी- मोदी, मोदी-योगी की दिलचस्प जोड़ी ने स्क्रीन पर, होर्डिंग और विज्ञापनों में तथा मूड पर कब्जा कर लिया। जीवन चलते-बढ़ते हुए था। कोविड बाद की स्थितियों में काफी सारे बाल गिरे और फेफड़े कमजोर हुए लेकिन आखिरकार दौड़ना मेरा शुरू हुआ। धीरे-धीरे अपनी रफ्तार बढ़ी, सक्रियता बढ़ी, बेबी के दो आयोजनों में हिस्सा लिया। कई दोस्तों के बच्चे हुए, कुछ के अगले साल होने वाले हैं। नहीं, जीवन खत्म नहीं होता, रुकता नहीं।   दिशंबर आया। और सूदुर दक्षिण अफ्रीका ओमिक्रोन का महावस्फोट! साल खत्म होने वाला ही था कि आखिरी धमाका। ओमिक्रोन का नया वैरिएंट तेजी से फैलते-फैलते देश और दिल्ली भी पहुंच गया। यूके के एनएचएस में काम करने वाले एक मित्र ने बताया, 'ओमिक्रोन यूके में गंभीर हो गया है, मूड कैसा है' के जवाब में लिखा है,  'लोग थके हुए हैं, तंग आ चुके हैं'। लॉकडाउन और नाइट कर्फ्यू के बारे में सोचने-विचारने और फैसले का वक्त वापिस लौटा। लोग कहते हैं, स्पैनिश फ्लू कोई चार साल रहा। कोविड दो साल पहले आया था। हम दो साल कोरोना के साथ गुजार चुके हैं; टीके विकसित कर लिए है लेकिन उसका एक खतरनाक वैरिएट पहले आया और अब जब हम 2022 में प्रवेश कर रहे हैं तो तेज रफ्तार ओमिक्रोन फैलता हुआ है। इससे हम कैसे निपटेंगे, इसका निश्चित कोई जवाब नहीं है। क्या नए साल में हम महामारी के भंवर में ही फंसे रहेंगे या भंवर को सामान्य मान उसके साथ जीना सीख लेंगे, ऐसे ही जीना स्वीकार करेंगे? बेशक, हम मनुष्यों के पास जीवित रहने के कई कौशल हैं, उसका समय और जीवन नहीं रुकता!
Published

और पढ़ें