भारत आखिर किस दिशा में जा रहा है? आने वाले अगले दशक में भारत की क्या कहानी होगी? क्या हम गरजते हुए नजर आएंगे या हकलाते हुए? क्या हम तेज विकास की और बढ़ेंगे या पतन की खाई में गिरेंगे? जिस जोरदार संख्याबल से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने क्या वे उसे काम का साबित कर पाएगें? क्या मोदी दुनिया के उन नेताओं की जमात में तो शामिल नहीं होंगे जो नेक इरादे से सत्ता में आए थे लेकिन अपने ही बनाए राजनीति के भंवर में फंसते चले गए?
जैसे-जैसे हम नए साल में प्रवेश कर रहे है वैसे-वैसे ये सवाल भी जरूरी होते जा रहे हंै! मेरे जहन में ये सवाल इसलिए बेचैनी बनाए हुए हंै क्योंकि मैं अभी विदेश हो कर आई हूं। मैं ज्यादा घूमी और रही योरोप व ब्रिटेन में हूं। वहां पढ़ाई भी की है। वहां रहते हुए भारत कभी वैसी प्रगति, वैसा विकास पा सकेगा यह जहन में कल्पना नहीं होती थी। उस वैभव को छू पाना संभव नहीं लगा। मगर हाल में पूर्व एशिया के छोटे-छोटे देशों में घूमना हुआ। पहले विएतनाम और कंपूचिया और हाल में सिंगापुर व मलेशिया तो यह बैचेनी बन गई है कि हमारे लिए तो इन देशों जैसा होना भी मुश्किल है।
ये देश अपनी संस्कृति, वैभव की पुरानी दास्तां लिए हुए नहीं हैं। इनका हालिया इतिहास युद्ध, क्रांति, बरबादी की विभिषिका लिए हुए है। मगर इनकी प्रगति, इनका विकास आज वह छलांग लिए हुए है जिसे देख समझ आता है कि विकास होना किसे कहते हंै? विकास का विजन देशों को, लोगों के जीने को कैसे सुखमय बनाता है और उस विजन से भारत और भारत के हम लोग कितनी बुरी तरह पिछड़े हुए हंै।
हां, विएतनाम का हेनोई, हो ची मिन शहर हो या मलेशिया का पेनांग, कुआलालंपुर शहर दुनिया के आगे, वैश्विक पर्यटकों के वे पोस्ट कार्ड हो गए हंै जिनमें गगनचुंबी इमारते है तो विकास की चमक-धमक के साथ जीवन जीने को आसान बनाने वाली सुख-सुविधाओं, साफ-सुथरापन दिखलाने वाली हर तस्वीर भी होगी।
वियतनाम का हेनोई बरबादी, दशकों लंबी लड़ाई का खंडहर था। 1975 याकि 44 साल पहले ही लड़ाई, गृहयुद्ध खत्म हुआ था। रिकवरी आसान नहीं थी। जंग में हारने के बाद अमेरिका ने वियतनाम के खिलाफ तमाम तरह की पाबंदियां लगाई। विदेश व्यापार, आयात- निर्यात बंद किया। अमेरिका के प्रभाव में और भी कई देशों ने वियतनाम के प्रति सख्ती बरती। अमेरिका और पश्चिमी देशों ने उस वक्त सचमुच वियतनाम को दुनिया का अछूत देश बना डाला था। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और यूनेस्कों से मिलने वाली मदद को भी रूकवा दिया गया।
बावजूद इस सबके वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी ने देश को विकास का ऐसा विजन दिया, ऐसे विकास के रास्ते पर बढ़वाया जिसकी भारत आज भी उम्मीद किए हुए है। आज हो चि मिन शहर अपने पांवों पर खडा है। देश की आर्थिकी की चमक इस शहर को भी चमकाए हुए है। शहर न केवल वियतनाम का एक बड़ा उत्पादक केंद्र है बल्कि देश-दुनिया की कई बड़ी कंपनियों ने अपने मुख्यालय शहर में खोले है। उद्योग- व्यापार-निर्यात सबमें वियतनाम छलांग-दर-छलांग मारता देश है।
यह विकास हाल के तीन दशकों का है। इससे भी बड़ी बात यह है कि यह शहर सिर्फ आर्थिक विकास ही नहीं कर रहा है बल्कि इसने अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत को भी खूबसुरती से सहेज कर रखा है। वियतनाम में होई आन और दा नांग जैसे छोटे शहर हो या मलेशिया के पेनांग का जार्ज टाऊन जैसे छोटे शहर आज दुनिया भर के पर्यटकों को खींच रहे है। सबके लिए बेहद मनभावक। कहीं कोई शहर अव्यवस्था, के होश नहीं। ऐसे विकसित है कि इतिहास और सुंदरता बरबस सबके दिल-दिमाग में स्थाई छाप छोड़ जाती है।
जब आप इनके विकास, तरक्की, ऐतेहासिक धरोहरों का संरक्षण देखते है और उन पर गर्व करते हुए वहां लोगों को संतोष में भरापूरा पाते है तो बार-बार सवाल कचोटता है कि हम कितने पिछड़े हुए है और हमें यह क्यों नहीं नसीब है? हमारे लोग क्यों नहीं समझते कि दुनिया कितनी आगे बढ़ी हुई है और हम क्या है? कहने को भारत भले दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्था का दावा करें लेकिन क्या एक भी शहर चाहे मुंबई हो या दिल्ली वह कुआंलालपुर जैसा बन पाया है? सिंगापुर होने जैसा तो खैर कल्पना में भी नहीं सोच सकते! क्या दिल्ली वियतनाम को हो चि मिन जैसा भी है? क्या हमारी सड़कें और फुटपाथ चलने लायक भी दिखते हैं? क्या हमने अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को उसी तरह से संजोए रखा है जैसे पेनांग या दा नांग में देखने को मिलती है?
हम अपने समद्ध इतिहास, संस्कृति और पंरपराओं पर गर्व करते है लेकिन जब हम दिल्ली के नेशनल म्युजियम या हैदराबाद के सालार जंग म्युजियम को देखते है तो क्या हमें इसमें गर्व जैसी कोई अनुभूति होती है? इनका बाहरी रूप भले भव्य दिखे लेकिन अंदर का धरोहर दर्शाना, प्रजेंटेशन, भीतर के हालात पुरानी दिल्ली की गलियों से ज्यादा खराब मिलेगे। सबकुछ जीर्णशीर्ण हालात में। लगता ही नहीं है कि भारत में इतिहास, संस्कृति, कला का कोई गौरव रहा होगा। सच्चाई है कि भारत में पर्यटक यहां की गरीबि, अशिक्षा और जीवन जीने की मुश्किलों को देखने आते है या देख कर जाते है। एसिया में पूर्व के आकर्षण में, इंसानी दिमाग की तरक्की और नयापन, प्राचीन और आधुनिक वक्त का मिलाजुला आनंद लेने के लिए वैश्विक पर्यटक चीन जाते है, सिंगापुर, मलेशिया, ओसाका या हो चि मिन जैसे शहरों में जा रहे है। तभी विदेश घूमते हुए सवाल बनता है और बनना भी चाहिए कि हमारी प्राथमिकताएं क्या है? आखिर ऐसा क्यों है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल या महाराणा प्रताप या शिवाजी या भगवान राम की आदमकद मूर्तियां खड़ी करने के बजाय ऐसे चमत्कारिक वास्तुशिल्प बनाने पर जोर क्यों नहीं देते जो दुनिया में आधुनिक भारत की पहचान बने? क्यों नहीं भारत अपनी बुद्धी, अपने कौशल का उपयोग कर स्काई वे या पेट्रोना टॉवर बना रहा है या किसी एक शहर को हो ची मिन जैसा बना पा रहा है?
दरअसल सारी गडबड, सारे जवाब राजनीति में है।उसके आगे इधर-उधर सोचने, देखने, समझने की फुरसत ही नहीं है। क्या आपको पता है कि दुनिया में फिलहाल माना जाता है कि भारत के मुकाबले अब अफ्रीका के देशों में कारोबार करना और उसे बनाए रखना ज्यादा आसान है? ये मैं नहीं कह रही हूं बल्कि दूरसंचार के क्षेत्र में भारत में भी काम कर रही कंपनी के एक आला अफसर का कहना है कि वहां ज्यादा आसान है। अफ्रीकी देश तेजी से छलांग मार रहे है। कई अफ्रिकी देशों में शिक्षा का स्तर भारत से बेहतर हो गया है।
एक बात तो साफ है कि आजादी के बाद भारत के नेताओं, राजनैतिक दलों ने अपना ज्यादातर वक्त राजनीति में ही जाया किया है। देश के लिए नया कुछ करने के बजाय राजनीति की। भारत के नेताओं में आज तक दूरदृष्टि जैसी कोई बात नहीं देखने में आई। इसी के चलते देश में जाति और धर्म की राजनीति इतनी अधिक हावी हो गई है कि इससे पार पाना अब असंभव ही है। हमारे नेताओं को सबसे आसान तरीका यही लगा कि देश के लोगों को बांटो और राज करते रहो। शिक्षा पर कभी जोर नहीं दिया गया। बजाय इसके हमने अपनी राजनीति के मुताबिक किताबों को बनाया, इतिहास बनाया और काबलियत का भठ्ठा बैठाया। नेहरू से गांधी और गांधी से मोदी तक एक ही काम भारत में भरपूर मात्रा में हुआ है और वह काबलियत, योग्यता को आरक्षण का गिरवी बनाना है। यह हमारा मुगालता, नोसखियापन है, झूठ है जो हम सोचते है कि समता बन रही है, साक्षर हो रहे है और भारत बढ रहा है।
देश के बाहर कदम रखें तो बहुत जल्द मालूम होगा कि दुनिया बदल गई है और हम अभी भी धर्म और जाति की राजनीति में बंधे हुए है। इतनी सघन, कबीलाई राजनीति दुनिया के किसी और देश में नहीं मिलेगी। हम वह लोकतंत्र लिए हुए है जो बिना सामाजिक समरसता के है और अभिव्यक्ति की आजादी दस तरह की कुंठाओं में जकडी हुई।
वक्त तेजी से बदल रहा है लेकिन हम नेहरू, गांधी, मोदी के सफर में जहां थे वही है। नया दशक शुरू होने वाला है और तय माने कि राजनीति भारत को वैसे ही चलाएगी जैसे भारत चलता रहा है। अगले दशक में जाति, धर्म और अंहकार का बोलबाला रहना है। अच्छे दिन और सबका साथ, सबका विकास के रथ पर सवार हो कर आए प्रधानमंत्री के राज में सबकुछ उलटा पुलटा हुआ पड़ा है। सब परेशान है। बड़ी-बड़ी परेशानियों से दो-चार हो रहे है। दुनिया में मजाक बन कर रह गया है। एक तरफ अर्थव्यवस्था का भठ्ठा बैठा हुआ है तो नेता छाती ठोंक कर हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव बनवा दे रहे है। हिंदू राष्ट्र वाली बाते हो रही है। मगर कैसा हिंदू राष्ट्र ,जिसमें गगनचुंबी स्थापत्य नहीं बल्कि आदमकद मूर्तिया बनेगी? जहां महिलाएं असुरक्षित और पुरूष दिवालों पर पीक थूकते हुए। जिसमें विश्वविद्यालयों, हार्वड की महिमा नहीं बल्कि व्हाट्सअप से ज्ञान अर्जित करते हुए निरक्षक। हां, भारत से बाहर निकलेंगे तो दुनिया अच्छी बनी हुई और बनती हुई मिलेगी। लेकिन भारत का, हम लोगों का दुर्भाग्य जो कभी सकंल्प बनता ही नहीं कि हमें अच्छा बनना है। उलटा होता है। हम अच्छे नहीं बुरे होते गए, बिगडते गए और पिछले छह सालों की राजनीति ने और अहसास कराया है कि हम बुरे से कुरूप होते जा रहे है। कभी हम गौरवपूर्ण सभ्यता का बल लिए हुए थे लेकिन आज सचमुच असभ्यताकी जर्जरता लिए हुए है। किसी को यदि इसका अहसास करना हो तो निकलिए भारत से बाहर और चार घंटे की उडान के बाद वियतनाम या मलेशिया या सिंगापुर जा कर महसूस तो करें कि वे क्या और हम क्या!