आज का लेख

बरसो राम धड़ाके से

ByNI Editorial,
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बरसो राम धड़ाके से
accidents on the mountains आज भारत का हर पहाड़ी पर्यटन केंद्र बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहा है। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया है। .... स्विट्जरलैंड की सरकार हो या योरोप के पर्यटन केंद्रों की सरकारें, सभी अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? लेखक: विनीत नारायण हिमाचल की सांगला वैली में बिटसेरी इलाक़े में, बिना बारिश, के अचानक, पर्वतों के टूटने से जो भूस्खलन हुआ हैं उसने एक बार फिर हमारी विनाश लीला को रेखांकित किया। इस हादसे में 8 निर्दोष पर्यटक मारे गए और नदी के आर-पार जाने वाला पुल भी टूट कर बह गया। सोशल मीडिया पर इस भयावह हादसे का विडीओ देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। क्योंकि जून 2018 में ठीक उसी जगह हम भी सपरिवार थे। शिमला से बिटसेरी के 8 घंटे के ड्राइव में तब सारे रास्ते विकास के नाम पर विनाश का जो तांडव देखा उससे मन बहुत विचलित हुआ। Read also: कांग्रेस अभी इंतजार के मूड में हर ओर सड़क और विद्युत परियोजनाओं के लिए डाइनामाईट लगा कर जिस बेदर्दी से पहाड़ों को काटा जा रहा था उससे हरे-भरे हिमालय का ये क्षेत्र किसी परमाणु हमले के शिकार से कम नज़र नहीं आ रहा था। आज भारत का हर पहाड़ी पर्यटन केंद्र बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहा है। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया है। कल-कल करती पहाड़ी नदियां और झरने जिनके किनारे, जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित हुआ करते थे, आज होटलों और इमारतों से भरे पड़े हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी नदियों के निर्मल जल में जा रही है। Read also: पवार, यशवंत और अब ममता पूरे इलाके में ’स्वच्छ भारत अभियान’ का कोई प्रमाण नहीं दिखाई देता। जगह-जगह कूड़े के ढेर, पहाड़ों के ढलानों पर झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। ये सही है कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। Read also: यूपी में विस्तार होगा या नहीं? सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। पहाड़ों के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल होती है कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना न करना पड़े। Read also: भाजपा-कांग्रेस की सिर्फ भूमिका बदली है पहाड़ों पर घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा पहाड़ों के लोग प्रायः मकानों को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। Read also: जा रहा हूं मैं.. अलविदा! कह कर भाजपा के इस दिग्गज नेता ने राजनीति से लिया संन्यास इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं। सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से पहाड़ी लोगों की आमदनी बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। इन पहाड़ों को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। Read also कांग्रेस भी घर ठीक कर रही है ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 37 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 37 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? Read also घटनाओं के आगे लाचार मोदी यही बात प्रधान मंत्री जी द्वारा घोषित सौ ‘स्मार्ट सिटीज़’ के संदर्भ में भी लागू होती है। ऊपरी टीम-टाम के चक्कर में बुनियादी ढाँचे को सुधारने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वाराणसी का उदाहरण सामने है। जिसे जापान के प्राचीन शहर क्योटो जैसा बनाने के लिए भारत सरकार ने पिछले सात सालों में दिल खोल कर रुपया भेजा। पर काशीवासियों से पूछिए कि क्या सैंकड़ों करोड़ रुपया खर्च होने के बाद भी उनके शहर की बुनियादी समस्याएँ हल हुई? यही प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधान मंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित ’ब्रज तीर्थ विकास परिषद्’ भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। पर किसी ने नहीं सुना और परिणाम सामने है। जरूरत इस बात की थी कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नगरों के विकास की अवधारणा को अनुभवी लोगों की एक राष्टव्यापी समझ के अनुसार मूर्त रूप दिया जाता। फिर उससे हटने की आजादी किसी को न होती। पर सत्ता में बैठा क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों और ताश के महलों में परिवर्तित करता रहेगा ?
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