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मंडल के साए में आखिरी चुनाव?

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मंडल के साए में आखिरी चुनाव?
तो क्या यह माना जाए कि बिहार में इस बार हुआ विधानसभा का चुनाव मंडल राजनीति के साए में हुआ आखिरी चुनाव है और पोस्ट मंडल राजनीति शुरू हो गई है? इस निष्कर्ष पर पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी। हालांकि बहुत से राजनीतिक विश्लेषक इस नतीजे पर पहले ही पहुंच चुके हैं। वे चुनाव प्रचार के दौरान राष्ट्रीय जनता दल के नेता और महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव की सभाओं में जुट रही भीड़ को देख कर ही कहने लगे थे कि यह पोस्ट मंडल राजनीति की शुरुआत है। युवा तेजस्वी के साथ हैं। तेजस्वी ने रोजगार का मुद्दा बनाया है, जिससे जातियों की सीमा टूट गई है और हर जाति का युवा तेजस्वी व महागठबंधन के साथ है। पर यह बात आंशिक रूप से ही सही हुई। हर जाति के युवा अगर जाति की सीमा तोड़ कर महागठबंधन को वोट देते तो नतीजे इस तरह से नहीं होते। सो, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आंकड़ों को देखना जरूरी है। बिहार में एनडीए और महागठबंधन के वोट में सिर्फ 0.03 फीसदी का फर्क है। दोनों गठबंधनों को 35-35 फीसदी वोट मिले हैं। राजद और कांग्रेस जब भी एक साथ लड़ते हैं तो उनको इतना ही वोट आता है। जब 2010 में दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ी थीं तब कांग्रेस को नौ फीसदी और राजद को 24 फीसदी वोट मिले थे। यानी तब भी उनको वोट मिलने का औसत उतना ही था, जितना अभी है। इस बार यह आंकड़ा कम इसलिए माना जाएगा क्योंकि इस बार बिहार की तीनों वामपंथी पार्टियां भी इस गठबंधन के साथ थीं। सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई एमएल के साथ होने के बावजूद महागठबंधन 35 फीसदी वोट की सीमा नहीं तोड़ पाया, इसका मतलब है कि सब कुछ पहले की तरह ही हुआ है। अब दूसरी ओर देखें। दूसरी ओर यानी एनडीए को 35 फीसदी वोट मिले हैं, जबकि भाजपा और जदयू के साथ लड़ने पर वोट प्रतिशत 40 से ऊपर होना चाहिए। इस बार यह 35 फीसदी इसलिए रह गया क्योंकि गठबंधन की सहयोगी पार्टी लोजपा अलग लड़ी और उसे 5.6 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट आया। यह वोट एनडीए में जुड़ जाए तो उसका वोट प्रतिशत 40 फीसदी से ऊपर चला जाएगा। सो, दो गठबंधनों और एक लोजपा को मिला कर 75 फीसदी वोट एक तरफ और बाकी 25 फीसदी वोट अन्य के खाते में। बिहार में हमेशा मतदान का आंकड़ा इसी तरह का होता है। पार्टियों के बीच वोट इसी अनुपात में बंटते हैं। एक भाजपा को छोड़ कर सबका वोट लगभग स्थिर है या कम हुआ है। भाजपा का वोट जरूर समय के साथ बढ़ता गया है तो उसका कारण नीतीश कुमार हैं, जिनका मौन मतदाता चुपचाप भाजपा को वोट डाल देता है। नीतीश कुमार का वोट इसलिए नहीं बढ़ा क्योंकि भाजपा के सयाने मतदाताओं में से 20-25 फीसदी मतदाता हमेशा नीतीश को धोखा देते हैं। बहरहाल, पार्टियों और गठबंधन के बीच वोटों को इस बंटवारे के आधार पर तो पहली नजर में यहीं दिख रहा है कि मतदान पहले के सामाजिक विभाजन के तहत ही हुआ है। यानी जिसका जो वोट आधार है वह उसके साथ चिपका रहा है। जैसे राजद का वोट आधार मुस्लिम और यादव मतदाता हैं, जिसमें थोड़े से राजपूत हमेशा जुड़े रहे हैं। कांग्रेस का वोट मुस्लिम, सवर्ण व दलित में है, लेकिन वह बहुत छोटा है। बिहार में मुस्लिम और यादव की आबादी 30 फीसदी है। यहीं वोट हमेशा राजद के खाते में दिखता है। हर बार की तरह इस बार भी इसमें कुछ वोट कटा है क्योंकि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने एक बड़ा गठबंधन बना कर मुस्लिम बहुल इलाकों में अपने उम्मीदवार उतारे थे। जनता दल यू ने भी अच्छी संख्या में मुस्लिम और यादव उम्मीदवार उतारे थे और भाजपा ने कई बड़े यादव चेहरे आगे करके राजनीति की थी। इसके बावजूद यादव और मुस्लिम का बड़ा वोट आधार राजद के साथ रहा। दूसरी ओर नीतीश कुमार अकेले दम पर 15 से 17 फीसदी वोट की राजनीति करते हैं। 2014 में जब वे लोकसभा का चुनाव अकेले लड़े थे तब भी उनको इतना वोट आया था। इस बार भी उनकी पार्टी थोड़े बहुत ऊपर-नीचे के साथ इस खांचे में फिट हुई है। ध्यान रहे उनका वोट आधार अति पिछड़ी जातियां हैं। बिहार में इनकी आबादी 30 से 33 फीसदी बताई जाती है। इसका बड़ा हिस्सा नीतीश के साथ जाता है, उसके बाद भाजपा के साथ और बचा हुआ वोट अलग अलग जातियों के नेताओं या उम्मीदवारों को मिलता है। भाजपा का वोट आधार सवर्ण और वैश्य जातियां हैं, जिनके साथ नीतीश की वजह से कुछ अतिपिछड़ी जातियां जुड़ती हैं। कुल मिला तक यह बिहार का वोट समीकरण है और कुल मिला कर इसमें रत्ती भर का बदलाव नहीं हुआ है। अगर चिराग पासवन अलग होकर नहीं लड़ रहे होते और जदयू को नुकसान पहुंचाने वाली राजनीति नहीं की होती तो एनडीए इस बार भी पौने दो सौ सीटों के आसपास जीतती। कई हिस्सों में वोट बंटने से यह स्थिति बनी है कि एनडीए और महागठबंधन लगभग  बराबर हो गए हैं। वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या दोनों में बराबरी का यह मतलब नहीं है कि मंडल का तिलिस्म टूट गया है। मंडल की राजनीतिक लाइन पर ही इस बार भी वोट हुआ है और आगे भी इसी लाइन पर वोटिंग होती रहेगी। इस राजनीति के टूटने की शर्त एक ही है कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के वोट का एक हिस्सा भाजपा को ट्रांसफर हो, जिसकी कोशिश भाजपा कर रही है। अगर उसके सवर्ण व वैश्य वोट के साथ यादव और अतिपिछड़ा का एक वोट एक निश्चित मात्रा में जुड़ता है तभी बिहार में मंडल की राजनीति की तिलिस्म टूटेगा। अभी तो ऐसा नहीं लग रहा है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ऐसा होने देंगे। दोनों अपने वोट आधार को मजबूती से बनाए हुए हैं।
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