अजित कुमार: नियमों और कायदों का अनुपालन और उस पर अमल आमतौर पर संस्थाओं के साथ सरकार और सत्तारूढ़ दल की जिम्मेदारी होती है। पर अगर सत्तारूढ़ दल और सरकार के मंत्री ही सबसे ज्यादा नियमों का उल्लंघन करें तो संस्थाएं क्या करेंगी? दिल्ली में हो रहे विधानसभा चुनाव के प्रचार में जिस तरह से केंद्र सरकार के मंत्री और सत्तारूढ़ दल के नेता आचार संहिता के लिए तय नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं और चुनाव आयोग जिस तरह से उसे रोकने के आधे अधूरे प्रयास कर रहा है उससे समूची चुनाव प्रक्रिया और एक संवैधानिक संस्था के तौर पर चुनाव आयोग के ऊपर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। इससे सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक नैतिकता पर भी बड़ा सवाल उठा है।
इसमें संदेह नहीं है कि राजनीति करने वाली सभी पार्टियों का अंतिम लक्ष्य चुनाव जीतना और सत्ता हासिल करना होता है। पर क्या चुनाव जीतने के लिए कुछ भी किया जा सकता है? किसी भी तरह के साधन का इस्तेमाल किया जा सकता है? प्रचार में कुछ भी कहा जा सकता है? सांप्रदायिक और जातीय ध्रुवीकरण के लिए कैसे भी भड़काऊ बयान दिया जा सकता है? क्या किसी सभ्य देश में हो रहे चुनाव के बारे में यह कहा जा सकता है कि जंग में सब कुछ जायज है? लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में चुनाव कोई जंग नहीं होते हैं। तभी इसे लड़ने के नियम बने हैं और उनका उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई तक की व्यवस्था है। पर ऐसा लग रहा है कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं को इसकी परवाह नहीं है। जिस संस्था के ऊपर नियमों और संहिता को लागू करने की जिम्मेदारी है, उसकी पहले से कुछ सीमाएं तय हैं और कुछ सीमाएं उसको बता दी गई हैं।
ध्यान रहे पिछले साल लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने 30 से ज्यादा शिकायतें चुनाव आयोग में दर्ज कराई थीं। चुनाव प्रचार में सेना के नाम पर वोट मांगने का आरोप उन पर लगा था। लगभग सभी मामलों में चुनाव आयोग ने उनको क्लीन चिट दी थी। लेकिन तब खबर आई थी कि तीन चुनाव आयुक्तों में से एक आयुक्त अशोक लवासा ने मोदी को हर मामले में क्लीन चिट देने पर सवाल उठाया था। उन्होंने इस पर आपत्ति की थी। अभी स्थिति यह है कि लवासा का पूरा परिवार आय कर विभाग
की जांच झेल रहा है। हो सकता है कि यह एक संयोग हो कि उन्होंने मोदी को क्लीन चिट देने पर आपत्ति की और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ आय कर की जांच शुरू हो गई। पर इस संयोग ने निश्चित रूप से आचार संहिता का अनुपालन कराने वाली एजेंसियों के अधिकारियों को डर और चिंता में डाला होगा। इसलिए उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे पूरी तरह भय और चिंता से मुक्त होकर पक्षपातरहित कार्रवाई करेंगे।
ऐसा लग रहा है कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं को भी अंदाजा है कि अगर वे आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं तो ज्यादा से ज्यादा उनके खिलाफ क्या कार्रवाई हो सकती है। तभी वे पूरी तरह से बेपरवाह हैं और भड़काऊ भाषणों के सहारे दिल्ली में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं। केंद्रीय मंत्री, भाजपा के सांसद, पार्टी के उम्मीदवार सब एक लाइन पर भाषण कर रहे हैं। सबका प्रयास सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ाना है। पहले भी भाजपा या दूसरी पार्टियों के नेता भी सांप्रदायिक बयान दिया करते थे पर इस बार दिल्ली के चुनाव जैसा पहले कभी नहीं हुआ।
यह कभी नहीं हुआ कि केंद्रीय मंत्री कहे कि ‘इतनी जोर से ईवीएम का बटन दबाना कि करंट शाहीन बाग में लगे’। यह भी कभी नहीं सुनने को मिला कि कोई केंद्रीय मंत्री कहे ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’। यह भी पहली बार हुआ कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल के सांसद ने शांतिपूर्ण धरने पर बैठे लोगों के लिए कहे वे ‘घरों में घुस सकते हैं, मां-बहनों से बलात्कार कर सकते हैं और उनको मार सकते हैं’। यह सब कुछ भाजपा के नेताओं ने दिल्ली में कहा है। एक उम्मीदवार ने तो दिल्ली के विधानसभा चुनाव को सीधे सीधे भारत और पाकिस्तान की लड़ाई बता दिया। उसके खिलाफ कार्रवाई क्या हुई, 48 घंटे की पाबंदी लगी। पाबंदी खत्म होते ही वह उम्मीदवार प्रचार में उतरा और कहा कि उसे अपने कहे पर पछतावा नहीं है, वह खेद नहीं जताएगा। सोचें, ऐसी कार्रवाई का क्या मतलब है?
असल में इससे चुनाव आयोग की सीमा तो जाहिर होती ही है, भाजपा की भी सीमाएं जाहिर हो रही हैं। उसकी सीमा है कि वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बगैर चुनाव जीतने के बारे में नहीं सोच रही है। दिल्ली में पिछले 22 साल से लगातार चुनाव हार रही भाजपा शाहीन बाग में चल रहे धरने को अपने लिए अंतिम मौका मान रही है।
भाजपा का मौजूदा नेतृत्व भी 2015 के चुनाव के अपमानजनक हार को नहीं भूल पाया है। इसलिए किसी भी तरीके से चुनाव जीतने का प्रयास हो रहा है। पार्टी के तमाम नेता प्रचार करें, केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्रियों को प्रचार में उतारा जाए, प्रधानमंत्री की रैलियां हों, इसमें किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है पर इन रैलियों में सिर्फ सांप्रदायिक बातें हों और भड़काऊ बातों से ध्रुवीकरण का प्रयास हो तो उस पर निश्चित रूप से आपत्ति होनी चाहिए और चुनाव आयोग को भी सख्त से सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।