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भारत को क्यों जल्दी थी समझौते की?

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भारत को क्यों जल्दी थी समझौते की?
यह बिल्कुल समझ में नहीं आने वाली बात है कि भारत को आखिर चीन के साथ समझौता करने की इतनी क्यों जल्दी थी? अगर भारत सरकार के सूत्रों के हवाले से आने वाली खबरों पर ही भरोसा करें कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए बने विशेष तंत्र की बैठक का प्रस्ताव चीन ने दिया था तब भी वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए हुई दो घंटे की वार्ता में ही फार्मूला निकाल लेने की क्या जल्दी थी? ध्यान रहे इस मसले पर लेफ्टिनेंट जनरल स्तर की कम से कम तीन वार्ताएं 11-11 घंटे की हुई हैं। विदेश मंत्री जयशंकर भी चीन के विदेश मंत्री वांग यी से दो बार बात कर चुके हैं। पहली बार सिर्फ दोनों की वार्ता हुई थी और उसके बाद भारत, रूस और चीन के विदेश मंत्रियों की त्रिपक्षीय वार्ता हुई। यह सब एक मानक प्रक्रिया के तहत हो रहा था। भारत की सेना सीमा पर डटी थी और दुनिया भर के सामरिक विशेषज्ञ बता रहे थे कि भारत की सेना इस समय चीन से बेहतर पोजिशन में है। इसका मतलब था कि भारत बेहतर मोलभाव करने की स्थिति में था। इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लद्दाख दौरे के दूसरे ही दिन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने वांग यी से बात की और एक फार्मूला बन गया, जिसके तहत दोनों देशों की फौजें पीछे हटने लगीं। इस फार्मूले के बारे में आधिकारिक रूप से किसी को कुछ नहीं बताया गया है। देश को इसके बारे में पता नहीं है। सूत्रों के हवाले से खबरें आईं कि दोनों देश पीछे हट रहे हैं। समझौते को लेकर विदेश मंत्रालय ने जो बयान जारी किया उसमें इस बात का जिक्र नहीं था कि 22 अप्रैल से पहले की यथास्थिति बनाई जाएगी या नहीं। तभी सामरिक जानकार इस पर आशंका जता रहे हैं। उनको लग रहा है कि भारत ने अपनी एडवांटेज गंवा दी है। दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों की ओर से जारी बयानों के आधार पर रक्षा के जानकार बता रहे हैं कि अब भारतीय सेना पेट्रोलिंग प्वाइंट 14 तक गश्त नहीं कर पाएगी, जहां तक वह अप्रैल में करती रही थी। इसी तरह वास्तविक नियंत्रण रेखा, एलएसी के बीच बनने वाले बफर जोन को लेकर भी आशंका है। गलवान घाटी, पैंगोंग लेक, फिंगर 4 से फिंगर 9, देपसांग में वाई सेक्शन आदि कई जगहों को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। इस समझौता फार्मूले का चाहे जितना प्रचार किया जाए और टेलीविजन चैनल जीत का जैसा भी उन्माद दिखाएं हकीकत यह है कि आम लोगों में इससे कोई सकारात्मक मैसेज नहीं गया है। यह भारत की निर्णायक जीत की तरह नहीं है, जैसे कारगिल की लड़ाई में मिली थी। मनोवैज्ञानिक रूप से भारत के चीन के सामने दबे होने का ही संदेश इससे भी निकल रहा है, जबकि दुनिया के तमाम रक्षा और सामरिक मामलों के विशेषज्ञ मान रहे थे कि लद्दाख में अगर सीमित युद्ध होता है तो भारत को फायदा होगा। वह चीन को हमेशा के एक सबक दे सकता था। आखिर वियतनाम जैसे छोटे से देश ने चीन को सबक सिखाया है, ब्रिटेन से दूसरा ओपिम वार भी चीन हारा है, चीन के लोगों पर जापान की बर्बरता के किस्से इतिहास में दर्ज हैं, फिर क्यों भारत उसके साथ निर्णायक मुकाबले से पीछे हटता है? भारत ने चीन को 1967 में करारी शिकस्त दी थी और 1976 में उसके विरोध के बावजूद सिक्कम का विलय भारत में हुआ था। फिर भी ऐसा लगता है कि भारत के शासकों और आम लोगों के भी दिल-दिमाग में ऐसा लगता है कि 1962 की हार की ग्रंथि ही बैठी है। इसलिए भारत के शासकों के मन में हार का डर बैठा रहता है। उनको लगता है कि कहीं हार गए तो लोगों के बीच महामानव की जो छवि बनी है उसका क्या होगा? एक खास समूह के बीच अपने आभामंडल की चिंता में चीन को आंख दिखा कर उसे डराने की बजाय आनन-फानन में बातचीत  के जरिए समझौते का फार्मूला निकाला गया। इससे चीन के मुंह में खून लगेगा और भविष्य में भारत के लिए खतरा बना रहेगा। यह मौका था, जब चीन को भारत निर्णायक रूप से हरा सकता था। भारत सामरिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर लड़ाई छेड़ कर चीन के लिए मुश्किल पैदा कर सकता था। भारत चाहता तो शिनजियां और तिब्बत की पहाड़ियों से लेकर हिंद महासागर तक इस लड़ाई को फैला सकता था। ध्यान रहे चीन के कारोबार का सबसे बड़ा हिस्सा हिंद महासागर से होकर जाता है, जहां भारतीय नौसेना की ताकत का मुकाबला चीन किसी हाल में नहीं कर सकता था। अरब देशों से लेकर अफ्रीका तक होने वाले चीन के कारोबार को भारत हिंद महासागर में डूबो सकता था। भारत की नौसेना वहां तैनात है, जबकि चीन की नौसेना वहां से तीन से पांच सौ किलोमीटर दूर होगी। ध्यान रहे चीन का दो-तिहाई तेल समुद्र के रास्ते आता है। चीन के निर्यात का 41 फीसदी हिस्सा मिडिल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीका यानी मेना क्षेत्र में जाता है वह समुद्र के रास्ते ही जाता है, जहां भारत को एडवांटेज है। इसी तरह दुर्गम पहाड़ियों की लड़ाई में भी भारत की स्थिति बेहतर है। लद्दाख के जिस इलाके में विवाद है, वहां भी भारतीय वायु सेना का बेस मैदानी इलाकों में है, जबकि चीन का एयरबेस पहाड़ों के बीच है। इससे भारत को यह एडवांटेज है कि भारतीय वायु सेना के जहाज ज्यादा ईंधन और ज्यादा हथियार के साथ उड़ान भर सकते हैं। तभी कई सामरिक जानकारों का मानना था कि दुनिया की महाशक्तियां पंचायत करे उससे पहले भारत को फटाफट अपना हिसाब बराबर करना चाहिए। पर ऐसा करने की बजाय बातचीत करके समझौता फार्मूला निकाला गया और उसी का ढोल पीटा जा रहा है।
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