आज का लेख

अराजक प्रवृत्तियाँ लोकतंत्र के लिए घातक

ByNI Editorial,
Share
अराजक प्रवृत्तियाँ लोकतंत्र के लिए घातक
लोकतंत्र में जन-भावनाओं एवं जन-आंदोलनों की महत्ता को खारिज़ नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर बाद के अनेक सार्थक-सकारात्मक बदलावों में जन-आंदोलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। चाहे वह स्वतंत्रता से पूर्व का असहयोग, सविनय अवज्ञा,  भारत छोड़ो या विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन रहा हो या स्वातंत्रत्योत्तर-काल का भूदान, संपूर्ण क्रांति, श्रीरामजन्मभूमि या अन्ना-आंदोलन सबमें जनसाधारण की स्वतःस्फूर्त सहभागिता रही। पर इन सभी आंदोलनों में नारे-नीति-नीयत-नतीज़े सबको लेकर एक स्पष्टता एवं पारदर्शिता थी। साधन और साध्य की पवित्रता का आग्रह था। इसीलिए ये आंदोलन किसी वर्ग या समुदाय विशेष तक सीमित न रहकर जन-आंदोलन की शक्ल ले सके और समय एवं समाज पर अपना व्यापक एवं विशिष्ट प्रभाव भी छोड़ सके। इन सभी जन-आंदोलनों में यह सामान्य प्रवृत्ति देखने को मिली कि इनका नेतृत्व अपने ध्येय एवं नीति-नीयत-प्रकृति-परिणाम को लेकर भ्रमित या दिशाहीन बिलकुल नहीं रहा। बल्कि स्वतंत्रता-आंदोलनों में तो गाँधी जैसा दृढ़ एवं आत्मानुशासित नेतृत्व था, जो आंदोलनकारियों के हिंसक हो उठने पर अच्छे-भले सफल आंदोलन को भी स्थगित करने का नैतिक साहस रखता था। चौरी-चौरा में आंदोलनकारियों के हिंसक हो उठने के बाद उन्हें रोक पाना गाँधी जैसे नैतिक एवं साहसी नेतृत्व के लिए ही संभव था। सांस्कृतिक संगठनों को छोड़ दें तो कदाचित राजनीतिक नेतृत्व से ऐसे उच्च मापदंडों की आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह वह दौर था जब आंदोलन के भी सिद्धान्त या उसूल हुआ करते थे। उस दौर में यह ध्यान रखा जाता था कि किसी आंदोलन से आम जनजीवन बाधित न हो। उसमें अपने या वर्गीय हितों के बजाय बृहत्तर उद्देश्य या जनकल्याण की भावना निहित होती थी। विदेशी सत्ता से लड़ते हुए भी उन आंदोलनों में स्वानुशासन, नैतिक नियमों एवं मर्यादित आचरण का पालन किया जाता था। संयम एवं विवेक का परिचय दिया जाता था। उन आंदोलनों से आम या किसी निरपेक्ष-निर्दोष जन को कोई बाधा या क्षति न पहुँचे इसका विशेष ध्यान रखा जाता था। बुराई का विरोध, सरकारी नीतियों-क़ानूनों का प्रतिकार या असहमति प्रकट करते हुए भी व्यक्तियों-संस्थाओं की गरिमा को ठेस न पहुँचाने का यत्नपूर्वक प्रयास किया जाता था। यह लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संयम-संवाद के प्रति आम भारतीयों की आस्था ही रही कि आज़ादी के बाद भी जागरूक एवं प्रबुद्ध नेतृत्व द्वारा कमोवेश इन नैतिक मानदंडों का ध्यान रखा जाता रहा। और जिस नेतृत्व ने इन मानदंडों का उल्लंघन किया जनमानस ने उन्हें बहुत गंभीरता से कभी नहीं लिया। उनका प्रभाव और प्रसार अत्यंत सीमित या यों कहें कि नगण्य-सा रहा। भारत ने सदैव संवाद और सहमति की भाषा को ही अपना माना। धमकी और दबाव भरी आक्रामक भाषा से भारतीय जन-मन की स्वाभाविक दूरी रही। अपनी माँगों को लेकर अहिंसक एवं शांतिपूर्ण प्रदर्शन या आंदोलन आंदोलनकारियों का लोकतांत्रिक अधिकार है। यह सरकार और जनता के बीच उत्पन्न गतिरोध एवं संवादहीनता को दूर करने में प्रकारांतर से सहायक है। पर बीते कुछ वर्षों से यह देखने को मिल रहा है कि कुछ आंदोलन अपनी मूल प्रकृति में ही हिंसक और अराजक होते हैं। अपनी माँगों को लेकर क़ानून-व्यवस्था एवं शहरों-मुहल्लों को बंधक बना लेना, हिंसक एवं अराजक प्रदर्शनों के द्वारा सरकारों पर दबाव बनाना, सरकारी एवं सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना, आने-जाने के मुख्य मार्गों को बाधित एवं अवरुद्ध करना, निजी एवं सरकारी वाहनों में तोड़-फोड़ करना, घरों-दुकानों-बाज़ारों में लूट-खसोट, आगजनी करना, मार-पीट, ख़ून-खराबे आदि की भाषा बोलना- किसी भी सभ्य समाज या लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए मान्य एवं स्वीकार्य नहीं होतीं, न हो सकतीं। इन सबसे जान-माल की क्षति और रोज़मर्रा की ज़िंदगी तो बाधित होती ही होती है। आम नागरिकों के परिश्रम और कर से अर्जित करोड़ों-करोड़ों रुपए नाहक बरबाद होते हैं, पुलिस-प्रशासन की ऊर्जा अन्य अत्यावश्यक कार्यों से हटकर प्रदर्शनकारियों को रोकने-थामने पर व्यय होती है, विकास की गाड़ी पटरी से उतरती है, पूरी दुनिया में देश की छवि धूमिल होती है, विदेशी निवेश प्रभावित होते हैं, पर्यटन और व्यापार पर प्रतिकूल असर पड़ता है और अनुकूल एवं उपयुक्त अवसर की ताक में घात लगाकर बैठे देश के दुश्मनों को खुलकर खेलने और कुटिल चालें चलने का मौक़ा मिल जाता है। उल्लेखनीय है कि गाँधी स्वयं सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा, अनशन-उपवास जैसे प्रयोगों को कमज़ोरों-कायरों-दिशाहीनों के लिए सर्वथा वर्जित एवं निषिद्ध मानते थे। कदाचित वे इसके संभावित दुरुपयोग का अनुमान लगा चुके थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रायः तमाम उपद्रवी एवं अराजक तत्त्व भी स्वतंत्रता-आंदोलन में आजमाए गए इन प्रयोगों की आड़ में अपने हिंसक एवं अराजक व्यवहार को उचित एवं सही ठहराने की दलीलें देते हैं। विरोध या आंदोलनरत लोगों या समूहों को यह याद रखना होगा कि उनकी लड़ाई अब किसी परकीय या विदेशी सत्ता से नहीं है। अपितु वे लोकतांत्रिक पद्धत्ति से चुनी हुई अपनी ही सरकार तक अपनी बातें पहुँचाना चाहते हैं। विधायिका और कार्यपालिका का तो काम ही सुधार की दिशा में क़ानून बनाना है। भारत में कोई स्विस-संविधान की तरह जनमत का प्रावधान तो है नहीं। यहाँ चुने हुए विधायक-सांसद ही जनता के प्रतिनिधि माने जाते हैं। वे ही सरकार और जनता के बीच सेतु का काम करते हैं। सरकार तक अपनी भावनाओं को पहुँचाने के तमाम पारंपरिक माध्यम भी जनता के पास मौजूद हैं ही। वैसे भी लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। हर चुनाव में उन्हें अपने मताधिकार के प्रयोग का अवसर मिलता है। वे यदि किसी सरकार की नीति-नीयत-निर्णय से असंतुष्ट हों तो उचित अवसर आने पर अपने मताधिकार का प्रयोग कर उन्हें सत्ता से बेदख़ल कर सकते हैं। विरोधी या आंदोलनरत स्वरों-समूहों को यह भी ध्यान रखना होगा कि जिन करोड़ों लोगों का समर्थन सरकार को प्राप्त है, आख़िर उनके मत का भी कुछ-न-कुछ महत्त्व होता है! क्या हम कल्पना में भी ऐसे समाज या तंत्र की कामना कर सकते हैं, जिसमें हल्ला-हंगामा करने वाले हुड़दंगियों-उपद्रवियों एवं अराजक तत्त्वों की तो सुनवाई हो, पर शांत-संयत-प्रबुद्ध-विधायी-अनुशासित नागरिक-समाज के मतों की उपेक्षा कर दी जाय? इसलिए संवेदनशील एवं सरोकारधर्मी सरकारें भले ही पक्ष-विपक्ष के स्वरों को समान रूप से महत्त्व दे। पर भिन्न-भिन्न प्रकार के आंदोलन या विरोध का  नेतृत्व करने वाले नेताओं या समूहों की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने भीतर के अराजक एवं उपद्रवी तत्त्वों की पहचान कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाएँ। संसदीय प्रक्रियाओं को खुलेआम चुनौती देने, संस्थाओं को ध्वस्त करने तथा क़ानून-व्यवस्था को बंधक बनाने की निरंतर बढ़ती प्रवृत्ति देश एवं लोकतंत्र के लिए घातक है। इन पर अविलंब अंकुश लगाना समय और सुव्यवस्था की माँग है।
Published

और पढ़ें