
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अपनी पूरी ताक़त झोंकी। इसके बावजूद वो ममता बनर्जी को सत्ता से इंच भर भी डिगा नहीं पाई। उखाड़ फेंकना तो बहुत दूर की बात है। हां, बीजेपी राज्य में मुख्य विपक्षी दल ज़रूर बन गई है। बीजेपी के मुख्य विपक्षी दल बन जाने के बाद ममता बनर्जी की चुनौतियां बेतहाशा बढ़ जांएगी। ममता से चोट खाई बीजेपी उन्हें अगले पांच साल आराम से सरकार नहीं चलाने देगी। ममता को परेशान करने लायक ताक़त बीजेपी ने चुनानों में मिले वोटों से बटोर ली है।
ममता बनर्जी ने गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की ललकार, ‘अबकी बार, बीजेपी 200 पार’ को ‘फिर एक बार, टीएमसी 200 पार’ में बदल कर दुनिया को बंगाल का जादू दिखा दिया। बीजेपी ममता के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की 100 सीटे जीतने की चुनौती भी पार नहीं कर पाई। ममता नंदीग्राम का संग्राम भले ही राह गईं हों लेकिन उन्होने दिखा दिया कि बेहतर रणनीति और लगातार संघर्ष करके चुनाव कैसे जीता जाता है।
ममता ने अपने अकेले दम पर पीएम मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और मोदी सरकार केस मंत्रियों और बीजेपी के तमाम मुख्यमंत्रियों की फौज का अकेले अपने दम पर मुक़ाबला कर बड़ी जीत हासिल की है। बीजेपी ने चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 20, गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्य़क्ष जेपी नड्डा की 50-50 चुनावी रैलियां करने की रणीति बनाई थी। इनमें से कुछ रैलियां कोरोना संक्रमण के तेज़ी से फैलने की वजह से रद्द करन पड़ीं। प्रधानमंत्री मोदी का बांगलादेश देश जाकर वहां के प्रसिद्ध मंदिर में पूजा करने और मतुआ समाज के लोगों से मिलकर इस समाज के लोगों के वोट झटकने की रणनीति अलग थी। लेकिन ये सब कुछ काम न आया।
इतन ज़रूर हुआ है कि बीजेपी अब पश्चिम बंगाल में उसस मुक़ाम पर पहुंच गई है जहां वो अभी से अगले चुनावों की रणनीति बनाकर काम करे तो सत्ता पा सकती है। इन चुनावों में मिले वोटो से उसका का हौसला बढ़ा है। हिम्मत बढ़ी है। निश्चित तौर पर बीजेपी अब ममता बनर्जी को अब उस तरह सरकार नहीं चलाने देगी जिस तरह से वो पिछले 10 साल से चलाती रहीं हैं। केंद्र के साथ उनका टकराव आगे चलकर और बढ़ सकता है। बीजेपी को मिले बंपर पर वोटों ने उसे इतना मज़बूत जरूर बना दिया है कि वो अगले पांच साल ममता बनर्जी की नाक में दम करके रखेगी।
.बीजेपी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उसने इस चुनाव में वामपंथियों और कांग्रेस के वोट झटक कर उनका वजूद पूरी तरह ख़त्म कर दिया है। दिल्ली की तरङ कांग्रेस और वामपंथी इस बार एक सीट नहीं जीत पाए। इस चुनाव में वोटों की अदला बदली कुछ इस तरह हुई कि चुनाव तृणमूल और बीजेपी के बीच ही सिमट कर रह गया। कांग्रेस और वामपथीं दलों के मतदाताओं ने अपने-अपने हिसाब से बीजेपी और त़ृणमूल का दामन थाम कर दोनों का बोसहारा कर दिया। इससे ममता बनर्जी ने लगातार दो सौ से ज्यादा सीटें जीत कर अपनी जीत की हैट्रिक बनाई तो बीजेपी ने बाक़ी तमाम पार्टियों को बोरिया बिस्तर समेटने को मजबूर कर दिया।
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव की सबसे खास बात यह है कि बीजेपी के आक्रामाक प्रचार और कई दिग्गजो के ऐन चुनाव से पहले साथ छोड़ने के बावजूद ममता बनर्जी अपनी पार्टी के वोट बढ़ाने में भी कामयाब रहीं। तृणमूल कांग्रेस को इस चुनाव में 48.80 % वोट मिले हैं। साल 2016 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार उसे करीब 4% ज्यादा वोट मिले। तब उसे 44.91% वोट मिले थे। तब उसे 2011 के मुकाबले 6% ज्यादा वोट मिले थे। पिछले चुनाव में जीती 211 सीटों के मुकाबले इस बार उसने 213 सीटें जीती हैं।
बीजेपी ने भी सधी हुई चुनावी रणनीति बनाई। आक्रामक चुनाव प्रचार की रणनीति अपना कर अपनी सीटों और वोटों में जबरदस्त बढ़ोतरी की है। हालांकि गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 200 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया था।यह लक्ष्य तो बीजेपी हासिल नहीं कर सकी। ममता बनर्जी के चुनावी रणनीतिकार किशोर की चुनौती के मुताबिक बीजेपी सौ का आंकड़ा छूना तो दूर की बात है, उसके आसपास भी नहीं पहुंच पाई। बीजेपी को कुल 77 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा है। लेकिन उसका वोट प्रतिशत 2016 में 10.16 के मुकाबले बढ़कर 37.10% हो गया। साल 2011 में बीजेपी को सिर्फ 5.56% वोट ही मिले थे। तब वो एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। साल 2016 में बीजेपी ने 3 सीटें जीती थी। इस हिसाब से देखें तो बीजेपी का 3 से बढ़कर 77 पर पहुंच जाना बहुत बड़ी उफलब्धि है।
तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी दोनों का का वोट प्रतिशत बढ़ा है। बीजेपी का पिछले चुनाव के मुक़ाबले करीब 4 गुना हो गया है। अब सवाल यह उठता है कि बीजेपी के पास इतना वोट आया कहां से? पश्चिम बंगाल की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषकों का मानना है कि तृणमूल कांग्रेस के जिन बड़े नेताओं को बीजेपी ने चुनाव से पहले तोड़ा था उनके साथ तृणमूल कांग्रेस के वोटबैंक का बड़ा हिस्सा बीजेपी के पास आया है। इसके अलावा वामपंथी दलों का धुर ममता विरोधी वोट भी बीजेपी के साथ में गया। ये इस उम्मीद गया कि बीजेपी ही ममता बनर्जी को हरा सकती है। लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में वामपंथियों और कांग्रेस का मुस्लिम मतदाता तृणमूल के साथ चला गया।
इन चुनावों में कांग्रेस और वामपंथी दलों का वजूद पूरी तरह ख़त्म हो गया है। कांग्रेस और कोई भी वामपंथी दल अपना खाता तक नहीं खोल पाए। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 44 सीटें जीतकर इस बात के संकेत दिए थे कि शायद लंबे समय के बाद वामपंथियों का साथ लेकर वो अपना वोट और सीटें बढ़ा रही है। तब उसे 12.25% वोट मिले थे। इस बार कांग्रेस महज 2.84% वोटों पर पर ही सिमट कर रह गई। इस चुनाव में कांग्रेस अपने पतन के उस मुक़ाम पर पहुंच चुकी है जहां से उसकी वापसी की ना कोई गुंजाइश बची है और न ही कोई उम्मीद नजर आती है।
इसी तरह वाम मोर्चे की अगुवाई करने वाली सीपीएम भी 4.69% वोट वोटों पर सिमट कर रह गई है। 2016 के चुनाव में सीपीएम को 19.5% वोट मिले थे। 2011 के मुकाबले उसे 10.35% वोटों का नुकसान हुआ था। वाम मोर्चे में शामिल बाकी पार्टियों में सीपीआई फॉरवर्ड ब्लाक और आरएसपी इस बार 1% वह भी हासिल नहीं कर पाई हैं, को सीट जीतना तो बहुत दूर की बात है। पिछले चुनाव में इन तीनों को एक से तीन सीटें और 1.5% से 3.0% तक वोट मिले थे।
मुस्लिम वोटों के बलबूते अपनी राजनीति चमकाने निकले असदुद्दीन ओवैसी और फुरफुरा शरीफ दरगागह के पीरज़ादा मौलाना अब्बास सिद्दीकी कोई कमाल नहीं कर पाए। इन दोनों पार्टियों को मिलाकर 1% वोट भी नहीं मिला। मौलाना अब्बास की पार्टी राष्ट्रीय सेकुलर मजलिस पार्टी महज एक सीट जीत पाई है। लिहाज़ा पिछले दस साल ‘ममता की छांव’ में रहे मौलाना अब्बास की राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो शायद इस चुनाव के बाद दम तोड़ दे। असदुद्दीन ओवेसी की पार्टी के छह के छह उम्मीदारों की ज़मानत जब्त हो गई है। इससे देश भर में चुनाव लड़ने दौड़ रहे असदुद्दीन ओवैसी की रफ्तार पर भर भी ज़रूर ब्रेक लगेगा।