आज का लेख

मजदूरों को नकद पैसे क्यों नहीं देते?

ByShashank rai,
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मजदूरों को नकद पैसे क्यों नहीं देते?
हर समझदार आदमी सरकार से यहीं सवाल पूछ रहा है। वित्त मंत्री ने पांच दिन प्रेस कांफ्रेंस करके 21 लाख करोड़ रुपए के पैकेज का ऐलान किया। हर दिन यह सवाल पूछा गया कि इसमें कितने पैसे नकद लोगों के हाथ में जाएंगे। पर इसका कोई जवाब नहीं है सिवाए इसके कि सरकार जन धन खातों में पांच-पांच सौ रुपए डाल रही है और किसान सम्मान निधि के तहत किसानों को चार महीने पर दो हजार रुपए मिलेंगे। यानी उनके खाते में भी पांच-पांच सौ रुपए महीन डाले जाएंगे। इसके अलावा नकद किसी के हाथ में नहीं मिल रहा है। हालांकि सरकार के सूत्रों के हवाले से व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में यह पढ़ाया जा रहा है कि सरकार हर गरीब के हाथ में साढ़े तीन हजार रुपए दे रही है। कैसे दे रही है, उसका भी पूरा ब्योरा है। इसके मुताबिक पांच सौ रुपए खाते में, आठ सौ रुपए का सिलिंडर, दस किलो अनाज, एक किलो दाल और दूसरी कई चीजों पर सब्सिडी को जोड़ कर साढ़े तीन हजार रुपए का गणित बना है। पर असलियत यह है कि पांच सौ रुपए भी लेने के लिए लोगों को खासी मशक्कत करनी पड़ रही है, खास कर ग्रामीण और छोटे शहरों व कस्बों में। उन्हें कई दिन जाकर लाइन में लगना पड़ रहा है तब जाकर उनका नंबर आता है और उन्हें पैसे मिल पाते हैं। बहरहाल, फिर वहीं सवाल है कि सरकार प्रवासी मजदूरों, गरीबों और किसानों को और साथ साथ असंगठित क्षेत्र के कामगारों को नकद पैसे क्यों नहीं दे रही है? क्यों सरकारें अपना पैसा इस संकट के समय खर्च करने की बजाय बैंकों में जमा कर रही हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने या राहुल गांधी ने लोगों को नकद पैसे देने की मांग की इसलिए उन्हें पैसे नहीं दिए जाएंगे? गौरतलब है कि राहुल गांधी से बात करते हुए रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और जाने माने अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने कहा था कि किसानों को नकद पैसा दिया जाए। उनके हिसाब से इस पर सिर्फ 65 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा। कहां 21 लाख करोड़ का पैकेज और कहां 65 हजार करोड़ रुपए देने की मांग! पर सरकार को 21 लाख करोड़ रुपए का पैकेज घोषित करना मंजूर है, 65 हजार करोड़ देने की बजाय। अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार जीतने वाले अभिजीत बनर्जी ने भी राहुल से बात करते हुए यहीं कहा कि इस समय सबसे ज्यादा जरूरी गरीब, किसान, मजदूर, असंगठित क्षेत्र के कामगारों और स्वरोजगार से जुड़े ऐसे लोगों, जिनका काम लॉकडाउन की वजह से बंद हुआ है उनको तत्काल पैसा देने की जरूरत है। यह उनकी मुश्किलें भी आसान करेगा और देश की अर्थव्यवस्था में भी गति ला देगा। लेकिन ऐसा लग रहा है कि सरकार ने तय कर लिया है कि वह नकद पैसा नहीं देगी। भाजपा के कई नेता अनौपचारिक बातचीत में और उनके समर्थक औपचारिक रूप से भी टेलीविजन बहसों में कह रहे हैं कि लोगों को नकद पैसा दिया गया तो वे उड़ा देंगे, खर्च कर देंगे और उनके जीवन पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। जबकि पैकेज से देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, जिससे गरीबों का भविष्य संवरेगा। सोचें, सरकार को लोगों का भविष्य संवारने की पड़ी है, जबकि यहां वर्तमान संकट में है। अभी जिन लोगों का रोजगार खत्म हुआ है, नौकरी गई, कामकाज बंद हुआ है उन्हें भविष्य की चिंता नहीं है। उन्हें तत्काल नकद की जरूरत है ताकि वे अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकें। दुनिया के विकसित देश यहीं काम कर रहे हैं। जिन देशों में गरीबी नाममात्र की है और जहां दो-चार महीने की बंदी से लोगों के जीवन पर बहुत फर्क नहीं पड़ना है वहां भी सरकारें उन्हें नकदी दे रही है ताकि उनका मनोबल बना रहे। अमेरिका ने 151 लाख करोड़ रुपए यानी अपनी जीडीपी के दस फीसदी के बराबर का पहला पैकेज घोषित किया तो हर अमेरिकी को, जिसकी सालाना आय 75 लाख रुपए से कम है उसके खाते में तत्काल एक लाख रुपया डाला। इसके अलावा जिन लोगों की नौकरी जा रही है उन्हें अगले हफ्ते से ही बेरोजगारी भत्ता मिलने लग रहा है। जापान ने 240 अरब डॉलर का आपात पैकेज घोषित किया तो उसमें से आधा पैसा लोगों को नकद देने के लिए आवंटित किया। ब्रिटेन ने 88 अरब पाउंड के अपने राहत पैकेज में से नौ अरब पाउंड यानी करीब 80 हजार करोड़ रुपए नकद बांटने का प्रावधान किया। ऐसे ही ऑस्ट्रेलिया अपने नागरिकों को डेढ़ हजार ऑस्ट्रेलियाई डॉलर हर दो हफ्ते पर दे रहा है यानी तीन हजार डॉलर महीना दे रहा है। जर्मनी ने 55 अरब डॉलर अपने लोगों के बीच बांटने की घोषणा की है। इसके उलट भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण को अवसर बना कर आर्थिक सुधार किए जा रहे हैं। किसान, मजदूर, गरीब, असंगठित क्षेत्र के कामगार को नकदी मदद देने की बजाय यह व्यवस्था की जा रही है कि वह कर्ज ले या अपनी बचत का पैसा निकाल कर खा जाए। ऐसा संभवतः इसलिए भी है कि सरकार नहीं चाहती है कि उसकी ढोल की पोल खुले। देश की आर्थिकी को पांच हजार अरब डॉलर पहुंचाने के दावे की हकीकत यह है कि अगर सरकार अपनी जीडीपी का पांच फीसदी भी नकद बांटने का फैसला करे तो आर्थिकी की हालत बिगड़ेगी, जिसे संभालना सरकार के लिए मुश्किल होगा। तभी ऐसा लग रहा है कि सरकार आंकड़ों की बाजीगरी कर रही है। पहले से जिन योजनाओं में पैसे दिए जा रहे हैं, उन्हें ही जारी रखना भी इसी सोच का नतीजा है ताकि बजटीय आवंटन से बाहर जाकर ज्यादा खर्च न करना पड़े। इस सरकार की यह भी मुश्किल है कि वह स्वीकार नहीं कर सकती है कि आर्थिक हालत खराब है क्योंकि पिछले छह साल से देश के महाशक्ति बन जाने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है।
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