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बढ़ने वाली है किसानों की मुसीबत

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बढ़ने वाली है किसानों की मुसीबत
यह अजीब विडंबना है कि प्रधानमंत्री मास्टरस्ट्रोक के रूप में जो भी नीति पेश करते हैं वह बाद में तबाही लाने वाली साबित होती है। नोटबंदी, जीएसटी, लॉकडाउन आदि से लेकर किसानों की हालत ठीक करने के लिए लाए जा रहे कानूनों तक में इसे देखा जा सकता है। जिस सेक्टर पर यह सरकार ज्यादा ध्यान दे रही है उसका भट्ठा बैठ जा रहा है। तभी अब चिंता कृषि सेक्टर की है क्योंकि सरकार की नजर इन दिनों इस सेक्टर पर है। आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत कई कृषि सुधारों की घोषणा की गई और उसके बाद स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले से अपने भाषण में भी प्रधानमंत्री ने कृषि क्षेत्र में भारत के आत्मनिर्भर होने की बात कही। उन्होंने कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जो बदलाव किए उन्हें लागू करने के लिए तीन अध्यादेश भी जारी किए हैं, जिन्हें संसद के अगले सत्र में कानून बनाया जाएगा। ये तीनों अध्यादेश कृषि और किसानों की दशा सुधारने के लिए रामबाण उपाय बताए जा रहे हैं। पर असल में ऐसा नहीं है। बहरहाल, सरकार का पहला अध्यादेश आवश्यक वस्तु अधिनियम को बदलने का है। सरकार ने इसे बदलते हुए खाने-पीने की चीजों की एक सीमा से ज्यादा होर्डिंग करने यानी जमा करने के कानून को खत्म कर दिया है। अब कोई भी व्यक्ति कितनी भी मात्रा में कृषि उत्पादों को जमा कर सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे किसको फायदा होगा। कम से कम किसान को इससे कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि उसकी फसल या तो कटने से पहले ही बिक चुकी होती है या कटने के तुरंत बाद बिक कर उसके औने-पौने दाम उसके हाथ में आ जाते हैं। दूसरे देश के ज्यादातर किसानों की ऐसी हालत नहीं है कि वे महंगी कीमत चुका कर कोल्ड स्टोरेज में सामान जमा करें। सो, इससे किसान को कोई फायदा नहीं होगा पर आढ़तियों और बिचौलियों को जमाखोरी का मौका मिलेगा। बिचौलिए, आढ़तिए, फूड प्रोसेसिंग यूनिट चलाने वाली कंपनियां आदि जरूरत से ज्यादा सामान खरीद कर स्टोर कर सकती हैं। वे इनका मनमाना इस्तेमाल कर सकती हैं और जब चाहें तब बाजार में किसी भी सामान की किल्लत पैदा कर सकती हैं। इसका दूसरा बड़ा नुकसान यह है कि लंबे समय में धीरे-धीरे सरकारी खरीद बंद होगी और सरकार के गोदाम खाली होंगे। फिर अगर कोरोना टाइप का संकट कभी आया तो सरकार कहां से मुफ्त अनाज बांटेगी? अभी तो सरकार खरीद करती है तो उसके गोदाम भरे होते हैं पर अगर बिचौलिए या दूसरी कंपनियां जमाखोरी करेंगी तो सरकार अनाज कहां से लाएगी? क्या बाढ़, सुखाड़ या किसी प्राकृतिक-मानवीय आपदा के समय अनाप-शनाप कीमत देकर उसे खरीदा जाएगा? फिर ऐसी नीति का क्या फायदा? किसान को उचित कीमत नहीं मिलेगी और खरीददार को कई गुना कीमत चुकानी पड़ सकती है। सरकार का दूसरा अध्यादेश एपीएमसी यानी एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी को खत्म करने के लिए द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) अध्यादेश 2020 लाया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने लाल किले से भी इसका जिक्र किया और बताया कि अब सीमाएं टूट जाएंगी। किसान अपनी फसल कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। सवाल है कि किसान स्वतंत्र हो जाएगा तब भी वह अपनी फसल बेचने कहा जाएंगा? क्या बिहार के किसान उत्तर प्रदेश और उत्तर प्रदेश के किसान हरियाणा में अपनी फसल बेचेंगे? अगर ऐसा होता भी है तो इस बात की क्या गारंटी है कि बिहार के किसान को जो दाम वहां मिल रहा है उसके ज्यादा दाम किसी और राज्य में मिल जाएगा? ध्यान रहे बिहार में एपीएमसी पहले से ही नहीं है फिर भी किसानों की हालत दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा दयनीय है। इसलिए यह इस मामले का सरलीकरण करना है कि एपीएमसी को खत्म कर देंगे और किसानों को फसल कहीं भी ले जाकर बेचने की इजाजत दे देंगे तो इससे किसानों की स्थिति सुधर जाएगी। इसका नकारात्मक असर ज्यादा होगा। क्योंकि इसमें फसल के न्यूनतम मूल्य की बात नहीं कही गई है। इसमें कहा गया है कि बाजार की कीमत पर सामान बिकेगा। पर बाजार की कीमत तो किसान नियंत्रित नहीं करता है। वह तो फिर बाजार के हवाले हो गया। दूसरे, अगर सरकार फसल की खरीद से बाहर हो जाएगी, सरकारी खरीद नहीं होगी तो जरूरत पड़ने पर सरकार को भी बाजार से ही अनाज खरीदना होगा और उसके लिए उसे बहुत ज्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है। यानी यहां भी न किसान को फायदा है, न सरकार को और न आम आदमी को, सारा फायदा कारोबारी को है। तीसरा अध्यादेश द फार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एस्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज ऑर्डिनेंस 2020 है। यह कांट्रैक्ट फार्मिंग यानी ठेके पर खेती कराने को नया कानूनी रूप देने के लिए लाया जा रहा है। ठेके पर खेती का मतलब पहले यह होता था कि फसल की बुवाई के समय की बिक्री का सौदा हो जाता है। इसका फायदा किसान को यह होता था कि उसे फसल के नुकसान या भाव की चिंता नहीं करनी होती थी। पर इस नए कानून में इस परिभाषा को बदल दिया गया है। इसे सिर्फ फसल की कीमत तक सीमित नहीं रखा गया है, बल्कि सभी तरह के कृषि कार्यों को इसमें शामिल कर दिया गया है। इसका मतलब होगा कि कंपनियां खेती करेंगी और किसान उसके मजदूर बन जाएंगे। इसका साफ मतलब यह है कि अब किसान अपनी उपजाई फसल की कीमत नहीं लेगा, बल्कि अपनी ही जमीन पर की गई मजदूरी का भुगतान पाएगा। यह बात अध्यादेश के नाम में भी शामिल है। अध्यादेश में जिस फार्म सर्विसेज का जिक्र किया गया है वह किसान को मजदूर बनाने का दस्तावेज है। अफ्रीकी देशों में दुनिया भर की कंपनियां यह काम दशकों से कर रही हैं।
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