संशोधित नागरिकता कानून, सीएए के विरोध में देश भर में प्रदर्शन चल रहे हैं। दिल्ली के जामिया इलाके में स्थित शाहीन बाग इसका एक प्रतीक है। शाहीन बाग के अलावा सिर्फ दिल्ली में एक दर्जन से ज्यादा जगहों पर प्रदर्शन चल रहे हैं। लोग निजामुद्दीन में सड़क के किनारे टेंट लगा कर धरने पर बैठे हैं तो खूरेजी में भी लोग धरने पर हैं और पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में भी धरना चल रहा है। बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना सहित ऐसा शायद ही कोई राज्य है, जहां इस किस्म का प्रदर्शन नहीं चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शाहीन बाग में धरने पर बैठे लोगों से मध्यस्थ बात कर रहे हैं कि वे अपने धरने की जगह बदल दें।
यह मध्यस्थता सिर्फ जगह बदलने के लिए धरना खत्म करने के लिए नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने लोगों के धरना देने के मौलिक अधिकार को स्वीकार किया है पर साथ ही यह भी कहा है कि लोगों को सड़क पर चलने और अपनी दुकाने खोलने का भी मौलिक अधिकार है। सो, अगर मध्यस्थता सफल होती है तो ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन की जगह बदल जाएगी। अगर मध्यस्थता सफल नहीं होती है तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह फिर सड़क खाली कराने का जिम्मा प्रशासन पर छोड़ देगी। तब भी हो सकता है कि प्रशासन जोर जबरदस्ती से सड़क खाली करा दे, जैसा कि उत्तर प्रदेश में हो रहा है। पर इससे कोई स्थायी हल नहीं निकलना है। दोनों ही स्थितियों में ज्यादा से ज्यादा धरने की जगह बदलेगी।
तभी सवाल है कि नागरिकता विरोधी आंदोलन का अंतिम अंजाम क्या होगा? क्या लगातार धरने और प्रदर्शन से थक आकर प्रदर्शनकारी घर लौट जाएंगे या लगातार चल रहे प्रदर्शन से अपनी छवि और कामकाज पर हो रहे असर के दबाव में केंद्र सरकार पीछे हटेगी और सीएए में कोई बदलाव करेगी? तीसरा रास्ता यह भी है, जो कि मोलभाव का रास्ता है कि केंद्र सीएए में बदलाव नहीं करे पर निर्णायक रूप से यह ऐलान कर दे कि वह देश भर के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, एनआरसी नहीं लाने जा रही है। पर यह भी संभव नहीं लगता है क्योंकि अगले साल पश्चिम बंगाल और असम में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां भाजपा को इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ना है।
केंद्र सरकार ने सीएए को लेकर समय के साथ अपना स्टैंड और सख्त किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दिनों अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी के दौरे पर थे, जहां उन्होंने बहुत साफ शब्दों में कहा कि नागरिकता के मसले पर सरकार पीछे नहीं हटने जा रही है। उन्होंने कहा कि तमाम दबाव के बावजूद सरकार अपने स्टैंड पर कायम रहेगी। यहीं बात केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कुछ समय पहले कही थी। उन्होंने ज्यादा स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सीएए पर सरकार एक इंच पीछे नहीं हटेगी। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के मध्यस्थों से धरने पर बैठी एक बूढ़ी अम्मा ने कहा कि धरना तभी खत्म होगा, जब सीएए वापस होगा। अब अगर सरकार एक इंच भी पीछे हटने को तैयार नहीं है और प्रदर्शनकारी सीएए हटने तक धरने पर बैठे रहने को अड़े हैं तो इसका अर्थ है कि गतिरोध बना रहेगा।
इसके बाद आखिरी रास्ता अदालत का बचता है। ध्यान रहे सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता कानून में संशोधन करके तीन पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर भारत आने वाले गैर मुस्लिमों का नागरिकता देने का प्रावधान करने वाले कानून को सुप्रीम कोर्ट में अनेक याचिकाएं दी गई हैं। अदालत ने तमाम याचिकाएं स्वीकार कर ली हैं और उच्च अदालतों को भी इस पर सुनवाई से रोक दिया है पर उसने कानून पर रोक नहीं लगाई है। तभी सवाल है कि कब सुनवाई होगी और कब अंतिम फैसला आएगा और क्या तब तक ऐसे ही देश के अलग अलग हिस्सों में आए दिन प्रदर्शन होते रहेंगे और लोग धरने पर बैठे रहेंगे?
कई कारणों से यह जरूरी है कि इन धरनों और प्रदर्शनों का अंत हो। इसे संविधान बचाने की लड़ाई बता कर जो लोग इसका महिमामंडन कर रहे हैं या जो लोग इसे हिंदू-मुस्लिम की साझा लड़ाई बता कर इसका गुणगान कर रहे हैं वे कोई बहुत अच्छा काम नहीं कर रहे हैं। यह न तो पूरी तरह से संविधान बचाने की लड़ाई है और न यह महात्मा गांधी के किसी आंदोलन की तरह देश के आम नागरिक का आंदोलन है। यह एक किस्म के भय और आशंका से पैदा हुआ आंदोलन है। वह भय निराधार भी हो सकता है। पर उस बहस में जाए बगैर इतना कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार ने एक राजनीतिक मकसद से इस कानून में धार्मिक भेदभाव का प्रावधान किया। तभी उसके विरोध में चल रहा आंदोलन भी अंततः राजनीति का रूप लेता जा रहा है।
दिल्ली में भले भाजपा इसका फायदा नहीं ले पाई पर लंबे समय में उसे इस राजनीति का फायदा होगा। लगातार चल रहे इस आंदोलन का नुकसान यह हो रहा है कि जमीनी स्तर सामाजिक रूप से विभाजन बढ़ता जा रहा है। विभाजन इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि भाजपा को प्रचार का मौका मिल रहा है कि आज संविधान बचाने के लिए जो लोग धरने पर बैठे हैं वे पूरी दुनिया में संविधानों से ऊपर अपने शरिया की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए लड़ते रहे हैं। न यह धारणा रातों बात बनी है और न रातों रात इसे बदला जा सकता है। पर यह सही है कि धरना जितना लंबा चलेगा, धरने में शामिल जमात को उतना राजनीतिक व सामाजिक नुकसान होगा।
सीएए विरोधी प्रदर्शनों का क्या होगा?
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