सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के बाद एक बार फिर कर्नाटक के मामले में भी पंचायती करने वाला फैसला दिया है।
अदालत ने फैसले में कहा है कि 17 विधायकों की अयोग्यता पर दिया गया स्पीकर का फैसला सही है पर साथ ही यह भी कह दिया है कि इन विधायकों को 2023 तक यानी मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने तक
अयोग्य ठहराए रखने का फैसला गलत है। सो, स्पीकर की भी विधायकों को अयोग्य ठहराने की शक्ति बची रह गई और अयोग्य ठहराए गए विधायकों के चुनाव लड़ कर मंत्री बनने का रास्ता भी साफ हो गया।
तभी एक तरफ कांग्रेस ने फैसले के आधार पर सरकार का इस्तीफा मांगा तो दूसरी ओर भाजपा ने फैसले का स्वागत करते हुए पहले अयोग्य ठहराए गए विधायकों को अपनी पार्टी की टिकट दे दी। सोचें, कोई भी फैसला ऐसा कैसे हो सकता है कि दोनों पक्ष खुश हो जाएं और तारीफ करने लगें।
ऐसे तो पंचायत होती है। इसमें सबसे पहला सवाल तो यह है कि जब विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया तो स्पीकर को उन्हें अयोग्य ठहराने का अधिकार कैसे है? अदालत को पहला सवाल तो स्पीकर से पूछना चाहिए था कि उन्होंने विधायकों के इस्तीफे पर जल्दी फैसला क्यों नहीं किया?
और जब किया तो सीधे इस्तीफा स्वीकार करते उन्हें अयोग्य क्यों ठहराया?
स्पीकर के पास विधायकों को अयोग्य ठहराने का अधिकार है पर यह नहीं हो सकता है कि सत्तारूढ़ दल का विधायक इस्तीफा दे तो उसे स्वीकार करने की बजाय वह उसे अयोग्य ठहरा दे। स्पीकर का फैसला शुरू से राजनीति से प्रेरित था पर उसे ठीक करने और निश्चित दिशा-निर्देश देने की बजाय अदालत ने भी बीच का रास्ता निकाल दिया।