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आउटसाइडर बनाम इनसाइडर

अगर कोई यह शिकायत करता है कि इतने वक्त से उसे कोई काम नहीं दे रहा तो पहला सवाल तो यह उठता है कि आखिर वह कौन सी दुनिया में जी रहा है? क्या फिल्मों के अलावा दूसरे क्षेत्रों में सभी प्रशिक्षित और लायक लोगों को काम मिल रहा है? और वह कौन सा क्षेत्र है जहां आपको काम मिले और इस बात की गारंटी भी रहे कि लगातार काम मिलता रहेगा? क्या फिल्म वालों को पता है कि बेरोज़गारी का क्या आलम है? 

परदे से उलझती ज़िंदगी

यह विवाद अब काफी मुखर हो चुका है। इसके एक छोर पर वे लोग हैं जो बॉलीवुड में पहले से स्थापित किसी व्यक्ति के रिश्तेदार हैं या उसके शरणागत हैं और दूसरी तरफ वे बाहरी लोग हैं जो आ तो गए हैं, मगर उन्हें लगता है कि उनके साथ भेदभाव होता है। इस बारे में नवीनतम बयान अहाना कुमरा का है। उन्होंने कहा कि वे बॉलीवुड में किसी गिरोह का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए दो साल से उन्हें कोई काम नहीं मिला। किसी भी तरह के रोल के लिए उनसे संपर्क नहीं किया जा रहा। उनके मुताबिक जो कलाकार किन्हीं खास तरह के लोगों के साथ उठते बैठते और घूमते हैं, उन्हें लगातार काम मिलता रहता है। अहाना कुमरा को हम ‘इनसाइड एज’ व ‘युद्ध’ जैसी वेब सीरीज़ और ‘लिप्सटिक अंडर माई बुरका’ और ‘सलाम वेंकी’ जैसी फिल्मों में देख चुके हैं। ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में वे प्रियंका गांधी बनी थीं। ऐसे आरोप अहाना से पहले भी कई कलाकार लगा चुके हैं। कंगना रनौत और शेखर सुमन तो लगाते ही रहते हैं। इन सब लोगों को लगता है, बॉलीवुड ने उनके साथ न्याय नहीं किया। शेखर सुमन कहते हैं कि उनके बाद उनके बेटे अध्ययन के साथ भी वही हो रहा है। सब कुछ तय हो जाने के बाद भी उससे भूमिकाएं छिन जाती हैं। उनका दावा है कि मैं जो कुछ बोलता रहता हूं उसका बदला मेरे बेटे से लिया जा रहा है।

अठारह साल पहले अमिताभ बच्चन की कंपनी एबीसी ने एक फिल्म बनाई थी, ‘विरुद्ध।‘ इसमें अमिताभ के अलावा शर्मिला टैगोर, संजय दत्त, जॉन अब्राहम आदि भी थे। इसके निर्देशक संजय मांजरेकर से जब इसके नाम की बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ‘विरुद्ध’ का मतलब यहां ‘बनाम’ से है। निश्चित ही उनके कहे के पीछे मराठी असर रहा होगा, क्योंकि हिंदी में बनाम में तुलनात्मक भाव ज़्यादा है जबकि विरुद्ध में मुकाबले की या प्रतिद्वंद्विता की धमक है। अगर बॉलीवुड के आउटसाइडरों और इनसाइडरों वाले प्रकरण में प्रयुक्त हो रहे ‘गिरोह’ और ‘माफ़िया’ जैसे शब्दों पर गौर करें तो आप पाएंगे कि यह विवाद बनाम उतना नहीं है जितना कि विरुद्ध है।

जिन्हें गिरोह कहा जा रहा है, शायद वे कैंप हैं। बड़े फिल्मकारों के कैंप बॉलीवुड में हमेशा से रहे हैं। पहले तो निर्माता कंपनियां कलाकारों को वेतन पर रखती थीं। उन कंपनियों में चलने वाली तिकड़मों की कुछ झलक विक्रमादित्य मोटवानी ने ‘जुबली’ में दिखाई है। बाद में महबूब खान, वी शांताराम, बीआर चोपड़ा, बिमल रॉय और गुरूदत्त या राजकपूर आदि के कैंप थे। जिस किसी को भी कोई बड़ा फिल्मकार अक्सर काम देता था वह उसके कैंप का गिना जाने लगता था। जब राजेश खन्ना बड़े स्टार बन गए तब उनकी फिल्मों में सत्येन कप्पू और गुरनाम अक्सर देखे जाते थे। सब लोग उन्हें राजेश खन्ना के कैंप का सदस्य बोलने लगे। इनमें से गुरनाम तो बाद में राजेश खन्ना के सेक्रेटरी ही बन गए थे और उन्होंने एक फिल्म का निर्माण भी किया था। अमिताभ बच्चन के कहने पर भी जरूर कुछ लोगों को काम मिला होगा। लेकिन इस सब में आपकी उपयोगिता और आपके बाज़ार का हवाला पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। नहीं तो, एक दिन यश चोपड़ा के घर जाकर अमिताभ बच्चन को खुद अपने लिए काम नहीं मांगना पड़ता।

किसी को फिल्मों में काम मिला और वह उसका अधिकतम उपयोग नहीं कर पाया या अपनी उपयोगिता साबित नहीं कर पाया तो फिर यह उसी की खामी है। किसी भी फिल्मकार को यह हक है कि वह जिसे चाहे काम दे या जिससे पहले काम करवा चुका है उससे दोबारा न करवाए। वह चाहे तो उसकी बजाय किसी कमजोर कलाकार को ले ले। आप यह नहीं कह सकते कि फलानी फिल्म में मेरी इतनी तारीफ़ हुई थी, या वह फिल्म इतनी चली थी, फिर भी कोई मुझे काम नहीं दे रहा। इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह फिल्मकारिता की स्वतंत्रता का मामला है। अगर कोई यह शिकायत करता है कि इतने वक्त से उसे कोई काम नहीं दे रहा तो पहला सवाल तो यह उठता है कि आखिर वह कौन सी दुनिया में जी रहा है? क्या फिल्मों के अलावा दूसरे क्षेत्रों में सभी प्रशिक्षित और लायक लोगों को काम मिल रहा है? और वह कौन सा क्षेत्र है जहां आपको काम मिले और इस बात की गारंटी भी रहे कि लगातार काम मिलता रहेगा? क्या फिल्म वालों को पता है कि बेरोज़गारी का क्या आलम है?

करीब डेढ़ साल पहले मनोज बाजपेयी ने भी कहा था कि इंडस्ट्री में कामयाब लोगों को चाहिए कि वे नए लोगों को जगह दें। मगर सच्चाई यह है कि पिछले दस-पंद्रह बरसों में जितने नए कलाकार परदे पर आए हैं उतने इससे पहले इतनी ही अवधि में कभी नहीं आए। अभिनय के साथ लेखन, निर्देशन, गायन, छायांकन, हर विधा में नए लोग आ रहे हैं। इन दिनों जो पचासों फिल्में और वेब सीरीज़ बन रही हैं उनके कलाकारों के नामों पर नज़र दौड़ाइए। दर्जनों ऐसे नाम मिलेंगे जो आपने पहले नहीं सुने। वे किसी कैंप या रिश्तेदारी की मार्फत आए हैं, या कास्टिंग काउच जैसी किसी अनैतिकता की देन हैं, या खालिस अपनी प्रतिभा के बूते आए हैं, मगर वे आ गए हैं। हर क्षेत्र में नए लोगों को ऐसे ही जगह मिलती है। उनमें इनसाइडर भी होते हैं, लेकिन संख्या हमेशा आउटसाइडरों की ज्यादा होती है।

By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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