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बदलते माहौल में ढलती फ़िल्में

बदलते माहौल में ढलती फ़िल्में

देश और समाज में जब भी बड़े बदलाव का दौर आता है तो वह फिल्मों के विषयों को भी बदल डालता है या उन्हें नियंत्रित करने लगता है। अब भी कर रहा है। इसीलिए ‘खोसला का घोंसला’, ‘शंघाई’, ‘तितली’ और ‘संदीप और पिंकी फरार’ आदि फिल्में बना चुके दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘तीस’ रिलीज़ नहीं हो पा रही। यह उन्होंने नेटफ़्लिक्स के भरोसे बनाई थी, लेकिन जब फिल्म पूरी हो गई तो उसने हाथ पीछे खींच लिए। इस ओटीटी प्लेटफॉर्म की हिचक का कारण है देश का मौजूदा माहौल।

परदे से उलझती ज़िंदगी

‘सब काल्पनिक है’ के दावे वाले डिस्क्लेमर की आड़ में विक्रमादित्य मोटवानी अपनी वेबसीरीज़ ‘जुबली’ में यह बताने का प्रयास करते हैं कि नए-नए आज़ाद हुए देश में दुनिया की दोनों बड़ी ताकतें यानी अमेरिका और रूस अपनी-अपनी विचारधारा के माफिक फिल्में बनवाने की साजिश रच रहे थे। यह इसलिए अविश्वसनीय लगता है कि जिस दौर की वे बात कर रहे हैं उसमें हिंदी सिनेमा पर सर्वाधिक प्रभाव 1943 में बनी इप्टा यानी इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन का रहा था। यह संस्था देश की आजादी की लड़ाई से संबंधित विषयों के प्रसार के लिए बनाई गई थी। हमारे ज्यादातर बड़े फिल्मकार, अभिनेता और गीतकार इससे प्रभावित थे या इससे जुड़े हुए थे। वे जो कुछ दिखाना चाहते थे, मसलन जातीय व धार्मिक कट्टरता का विरोध, औद्योगीकरण और एक नए समाज के निर्माण का सपना, वह उस समय की अपनी सरकार के नज़रिये से मेल खाता था। उसे आप इप्टा के लोगों की राजनीति भी कह सकते हैं। हालांकि कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उस दौर में धर्म और पूंजीवाद को महिमा मंडित करने वाली फिल्में बिलकुल नहीं बनीं। बल्कि लगभग तीन दशक बाद जब फिल्में इप्टा वालों के प्रभामंडल से बाहर निकलने लगीं तब पता चला कि जिन बुराइयों के विरुद्ध वह लड़ाई लड़ी जा रही थी वे सब तो अब भी मौजूद हैं।

आपको सही लगे या गलत, लेकिन देश और समाज में जब भी बड़े बदलाव का दौर आता है तो वह फिल्मों के विषयों को भी बदल डालता है या उन्हें नियंत्रित करने लगता है। अब भी कर रहा है। इसीलिए ‘खोसला का घोंसला’, ‘शंघाई’, ‘तितली’ और ‘संदीप और पिंकी फरार’ आदि फिल्में बना चुके दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘तीस’ रिलीज़ नहीं हो पा रही। यह उन्होंने नेटफ़्लिक्स के भरोसे बनाई थी, लेकिन जब फिल्म पूरी हो गई तो उसने हाथ पीछे खींच लिए। इस ओटीटी प्लेटफॉर्म की हिचक का कारण है देश का मौजूदा माहौल। उसे लगता है कि इस फिल्म के लिए यह सही समय नहीं है। कई महीने से दिबाकर इस फिल्म के लिए नया खरीदार तलाश रहे हैं जिसमें नसीरुद्दीन शाह, कल्कि कोएचलिन, मनीषा कोइराला, दिव्या दत्ता, हुमा कुरैशी, ज़ोया हसन, और नीरज कबी वगैरह ने काम किया है। यह एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी है और दिबाकर इसे अपनी अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानते हैं। वे नेटफ़्लिक्स के लिए पहले भी ‘लस्ट स्टोरीज़’ और ‘घोस्ट स्टोरीज़’ बना चुके हैं। लेकिन इस फिल्म के लिए वे समझ नहीं पा रहे कि क्या करें? यही नहीं, प्राइम वीडियो पर ‘पाताल लोक’ का दूसरा सीज़न और नेटफ़्लिक्स पर अनुगार कश्यप की सुकेतु मेहता की किताब ‘मैग्ज़िमम सिटी’ पर आधारित सीरीज़ के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। यह चर्चित किताब पुलित्ज़र पुरस्कार के अंतिम राउंड तक पहुंची थी और अशोक अमृतराज के प्रोडक्शन हाउस ने इस पर वेबसीरीज़ बनाने के लिए अनुराग कश्यप से संपर्क किया था। इससे पहले ‘सेक्रेड गेम्स’ का अगला सीजन तो लटक ही चुका है। यह सब ‘तांडव’ के एक दृश्य पर शोर मचने और फिर प्राइम वीडियो की ओर से उस दृश्य को बदले जाने के बाद का किस्सा है।

बहुत तेजी से बहुत कुछ बदल गया है या बदल रहा है। कई ओटीटी प्लेटफॉर्म्स में तो सामग्री का चयन करने वाले अधिकारी भी बदल गए हैं। वे बाकायदा यह तोल रहे हैं कि क्या चीज इन दिनों दिखाई जानी चाहिए और क्या नहीं। उनके पास भी और क्या चारा है। उन्हें भी तो बिजनेस करना है। स्थिति को इस बात से आंकें कि ‘कौन प्रवीण तांबे’ जैसी स्तरीय फिल्म देने वाले श्रेयस तलपड़े को अपनी एक ग्यारह साल पुरानी फिल्म के लिए माफी मांगनी पड़ी है। प्रियदर्शन के निर्देशन में बनी ‘कमाल धमाल मालामाल’ नाम की इस फिल्म में एक जगह श्रेयस एक मिनी ट्रक को अपने पैर से रोकते दिखाए गए हैं। समस्या यह हुई कि वे फिल्म में एक ईसाई पात्र बने हैं और जिस ट्रक को वे रोक रहे थे उस पर एक हिंदू धार्मिक प्रतीक चिन्ह का स्टीकर लगा हुआ था। कुछ समय पहले श्रेयस को बुरा-भला कहते हुए सोशल मीडिया पर इस सीन का वीडियो घूमने लगा। आखिर श्रेयस को कहना पड़ा कि हालांकि यह अनजाने में हुआ है, मगर मुझसे गलती हुई है, मुझे ध्यान देना चाहिए था, अब ऐसा नहीं होगा। सोच कर देखिये, बेचारे श्रेयस तलपड़े की क्या हैसियत, जब ‘लाल सिंह चड्ढा’ के समय आमिर खान जैसा बड़ा स्टार माफी मांग चुका है।

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Published by सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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