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उनके लिए जो ‘भीड़’ का हिस्सा नहीं थे

‘न्याय हमेशा ताकतवर के हाथ में होता है, अगर कमजोर के हाथ में दे दिया जाए तो न्याय अलग होगा।‘ अनुभव सिन्हा की आगामी फिल्म ‘भीड़’ में एक पुलिस इंसपेक्टर की भूमिका कर रहे राजकुमार राव यह बोल रहे हैं। संदर्भ है लॉकडाउन। वही लॉकडाउन जो 2020 में कोरोना महामारी शुरू होने पर पूरे देश में एक साथ लगाया गया था, जिसमें सब कुछ बंद हो गया था और जिसके कारण करोड़ों प्रवासी कामगार बड़े शहरों से अपने घरों को लौटने पर मजबूर हो गए थे। याद कीजिये, जब हमने देश के लगभग हर हाइवे पर आदमियों के जंगल चलते देखे। बहुत से लोग रेल की पटरियों पर चले। उन्हें कितनी ही जगह रोका गया, खदेड़ा गया। बहुत से लोग तो सड़कों की बजाय खेतों आदि के रास्ते मुसीबतें झेलते हुए अपने घर पहुंचे। इनमें से कितने लोग घर पहुंच ही नहीं पाए, इसका कोई आंकड़ा किसी के पास नहीं है। क्या हुआ होगा उनका?

कई जगह सड़क किनारे के कस्बों या गांवों के लोगों ने खाने-पीने की चीजें देकर घरों को लौटते इन लोगों की मदद की थी। मगर ज्यादातर राज्यों की सीमाओं पर पुलिस तैनात कर दी गई थी। फिल्म में एक पत्रकार बनीं कृतिका कामरा इन्हें बंटवारे के समय के बॉर्डर बताती दिखती हैं। खास बात यह कि रंगों के इस ज़माने में अनुभव सिन्हा ने ‘भीड़’ को ब्लैक एंड व्हाइट में फिल्माया है। वे कहते हैं कि इसे ब्लैक एंड व्हाइट में बनाने का मकसद बंटवारे के वक्त जैसा अहसास कराना था। उनके मुताबिक वैसी ही सामाजिक असमानता तब भी सामने थी जैसी हमने लॉकडाउन में देखी, जब लोगों की ज़िंदगी में रंग समाप्त हो गए। ऐसे में ब्लैक एंड व्हाइट के अलावा चारा ही क्या रहता है। अनुभव सिन्हा को हम ‘मुल्क’, ‘आर्टिकल 15’, ‘थप्पड़’ और ‘अनेक’ जैसी फिल्मों के लिए जानते हैं। ‘भीड़’ में भूमि पेडणेकर, पंकज कपूर, दिया मिर्ज़ा और आशुतोष राणा भी हैं। पत्रकार विनोद कापड़ी ने इसी मुद्दे पर ‘1232 किलोमीटर’ नाम की एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी जो डिज़्नी हॉटस्टार पर मौजूद है। वह भी खासा कारगर प्रयास था। लेकिन ‘भीड़’ थिएटरों में आ रही है जो हमें बताएगी कि ‘पठान’ और ‘तू झूठी मैं मक्कार’ जैसी रंगीनियत के सामने लोग अपने ब्लैक एंड व्हाइट यानी वास्तविक मुद्दों का क्या मोल लगाते हैं। और लगाते भी हैं या नहीं।

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