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फ़िल्मों के बायकॉट की राजनीति

ByNaya India,
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फ़िल्मों के बायकॉट की राजनीति
अक्षय कुमार की ‘रक्षाबंधन’ के खिलाफ सोशल मीडिया में अभियान चल रहा है। कहा जा रहा है कि इसकी लेखिका कनिका ढिल्लों ने हिंदू संस्कृति को लेकर कुछ ऐसा कहा है जो लोगों को नागवार गुजरा। इससे पहले एक पान मसाला के विज्ञापन में शामिल होने पर भी अक्षय कुमार को कुछ लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा था जो कि अजय देवगन और शाहरुख खान पहले से झेल रहे थे। कहा नहीं जा सकता कि इन दोनों मुद्दों पर उनका विरोध करने वाले वही लोग हैं या हर मुद्दे के हिसाब से कुछ नए लोग इस अभियान में आ जुड़ते हैं। मगर आमिर खान की 'लाल सिंह चड्ढा' के विरुद्ध चल रहे अभियान के पीछे मुख्य रूप से उनका एक पुराना बयान है जिसमें उन्होंने देश के माहौल को लेकर अपनी और अपनी पत्नी किरण राव की आशंकाओं का जिक्र किया था। उस समय भी उन्हें बहुत लानतें भेजी गई थीं। और अब जबकि किरण उनके साथ नहीं हैं, तब भी वह बयान उनका पीछा कर रहा है। वह भी उनकी एक महत्वाकांक्षी फिल्म के रिलीज के मौके पर जिसमें उन्होंने काफी मेहनत और सिरखपाई की है। हम जानते हैं कि ‘लाल सिंह चड्ढा’ हॉलीवुड की एक बड़ी शख़्सियत टॉम हैंक्स की ‘फ़ॉरेस्ट गम्प’ पर आधारित उसका भारतीय संस्करण है। टॉम हैंक्स जिन फिल्मों की वजह से पूरी दुनिया में जाने जाते हैं, यह उन्हीं में गिनी जाती है। आमिर खान ने ‘लाल सिंह चड्ढा’ के बायकॉट के अभियान पर दुख जताया है और कहा है कि मैं भी देश से बहुत प्यार करता हूं और प्लीज़ मेरी फिल्मों का बहिष्कार मत कीजिए। इससे पहले फिल्मकार करण जौहर भी इसी तरह अपनी पहले कही किसी बात को लेकर सफाई दे चुके हैं और अब वे ऐसा कुछ भी कहने से बचते हैं जिसकी कोई राजनीतिक प्रतिध्वनि संभव हो। मगर जिन लोगों ने बोलने की ठान ली है, वे अब भी बोलते हैं। मसलन, अनुपम खेर और कंगना रनौत लगातार राजनीति पर बोल रहे हैं तो नसीरुद्दीन शाह भी बोल रहे हैं। इन लोगों के बारे में पहले भी अभियान चले हैं और हो सकता है, भविष्य में जब भी इनकी कोई फिल्म आए तो कुछ लोग सोशल मीडिया पर फिर काम पर लग जाएं। क्या सोशल मीडिया पर चलने वाले इन अभियानों का वास्तव में बॉक्स ऑफ़िस पर कोई असर होता है? क्या फिल्मों को इस तरीके फ़्लॉप या हिट कराया जा सकता है? शायद नहीं। अगर इन अभियानों का सचमुच कोई प्रभाव पड़ता तो ‘धाकड़’ इस कदर पिटती नहीं और ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ इतनी कमाई नहीं कर पाती। फिर भी, इन अभियानों का नतीजा यह है कि हमारा फिल्म उद्योग आज राजनीतिक लाइनों पर बंटा हुआ दिखता है और फिल्मों का बिजनेस इतना ज्यादा अनिश्चितताओं से घिरा हुआ है कि अपने को तुर्रम खां समझने वाले लोग भी या तो कुछ कहते नहीं या अपने कहे को समेटने में लग जाते हैं।
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