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साहिर के गीतों का विस्तार

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के रहने वाले अजय आईआरएस यानी भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी हैं।उन्होंने ‘अल्फ़ाज़ और आवाज़’ नाम का एक ग्रुप बनाया है जो साहिर लुधियानवी के उन गीतों को विस्तार दे रहा है जिन्होंने हमारी कम से कम तीन पीढ़ियों को प्रेम, उम्मीद और सपनों का आसरा दिया। मुझे नहीं लगता कि देश में कहीं कोई और भी यह काम कर रहा है। साहिर लुधियानवी के दर्जनों गीतों और नज़्मों में अजय सहाब इसी तरह कुछ नया जोड़ चुके हैं।

परदे से उलझती ज़िंदगी

हिंदी फिल्मों के गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी ने शादी नहीं की थी। मुंबई में वे अपनी मां के साथ और जब वे नहीं रहीं तो अकेले रहते थे। मगर उनका नाम कई महिलाओं से जुड़ा। पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम ने तो उनके प्रति अपनी भावनाओं को खुद स्वीकार भी किया था। बहुत से लोग मानते हैं कि साहिर का झुकाव पचास और साठ वाले दशक की पार्श्वगायिका सुधा मल्होत्रा की ओर भी था। यह बात इतनी प्रचारित हुई कि सुधा को अपनी प्रतिष्ठा और करियर के लिए ख़तरा लगने लगा। धीरे-धीरे वे इतनी आजिज़ आ गईं कि 1960 में अचानक उन्होंने गिरधर मोटवानी नाम के एक बिजनेसमैन से शादी कर ली और फिल्मों से सारे रिश्ते तोड़ लिए। उसके बाद भी उन्हें अपनी और साहिर की चर्चा से लड़ना पड़ा। यहां तक कि उन्होंने ‘ब्लिट्ज़’  जैसे धाकड़ अख़बार से माफी मंगवा कर छोड़ी जिसने साहिर के साथ उनके फोटो छाप दिए थे। शादी के बाईस साल बाद 1982 की राजकपूर की फिल्म ‘प्रेम रोग’ का एक गीत गाने के लिए सुधा बड़ी मुश्किल से तैयार हुईं। वह भी तब जबकि साहिर को इस दुनिया से गए दो साल बीत चुके थे। इसके अलावा सुधा मल्होत्रा ने फिल्मों में फिर नहीं गाया।

कहते हैं कि जब वे अचानक फिल्मों से चली गईं उसके बाद ही ‘गुमराह’ फिल्म का ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’ वाला गीत साहिर ने लिखा। नहीं, लिखा तो वह पहले गया था, फिल्म में वह देरी से आया। इस उपमहाद्वीप और उसके बाहर भी, हिंदी और उर्दू वालों की सामूहिक स्मृति में यह गीत बहुत गहरे पैबस्त है। इस भाव और इस मूड का इससे बेहतर गीत हमारी फिल्मों में कोई और नहीं लिखा गया। हालांकि यह इकतरफा गीत है, यानी इस गीत में केवल प्रेमी का पक्ष था। अजनबी बन जाने की उसकी पेशकश पर प्रेमिका की कोई राय या प्रतिक्रिया इसमें नहीं थी। इसमें प्रेमिका का हिस्सा पिरोने के लिए एक शायर अजय सहाब ने इसके तीन नए अंतरे लिखे हैं। इनमें एक अंतरा है:

बताओ किस तरह अब अजनबी बन जाएं हम दोनों,

जला दे किस तरह कोई मोहब्बत का हसीं गुलशन,

जिगर का खून भी डाला था हमने जिसको बोने में,

बना कर यूं ही गर पल में इसे हम तोड़ डालेंगे,

तो फिर क्या फर्क रह जाएगा इश्क और खिलौने में।

कोई भी फिल्मी गीत तभी मुकम्मल होता है जब वह केवल लिखा या पढ़ा न जाए, बल्कि गाया भी जाए और अपनी धुन पर वह एकदम सटीक बैठे। इसीलिए अजय सहाब केवल इसे लिख कर नहीं छोड़ देते, उनके साथी राजेश सिंह और ज्ञानिता द्विवेदी मंच पर बाकायदा इन गीतों को गाते भी हैं। मंचीय प्रस्तुतियों में अजय ‘चलो इक बार’ वाले गीत को साहिर और अमृता प्रीतम के रिश्ते से जोड़ते हैं।

मगर यह केवल एक गीत है। साहिर लुधियानवी के दर्जनों गीतों और नज़्मों में अजय सहाब इसी तरह कुछ नया जोड़ चुके हैं। ऐसा कुछ जो किसी मशहूर गीत को नए आयाम दे और जो साहिर के स्तर का नहीं हो सकने के बावजूद, हल्का भी नहीं हो। सहाब उनका तख़ल्लुस है, वैसे उनका नाम है अजय पांडेय़। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के रहने वाले अजय आईआरएस यानी भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी हैं। वे छत्तीसगढ़ के एक साहित्यकार मुकुटधर पांडे के परिवार से ताल्लुक रखते हैं। कुछ ही बरसों में उन्होंने ‘अल्फ़ाज़ और आवाज़’ नाम का एक ग्रुप खड़ा कर लिया है जो उन गीतों को विस्तार दे रहा है जिन्होंने हमारी कम से कम तीन पीढ़ियों को प्रेम, उम्मीद और सपनों का आसरा दिया। मुझे नहीं लगता कि देश में कहीं कोई और भी यह काम कर रहा है। पहले इस ग्रुप की पहुंच सीमित थी, लेकिन अब इसे विदेशों से भी न्योते मिल रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि इस ग्रुप के कार्यक्रमों में जो पुरुष गायक राजेश सिंह हैं, वे भी आईआरएस अधिकारी हैं। हरदोई और लखनऊ से उनका संबंध है। हाल में उनका गाया ‘हम दोनों’ फिल्म का ‘अभी न जाओ छोड़ कर’ का विस्तार इतना पसंद किया गया कि एचएमवी ने ग्रुप से संपर्क किया है। इस ग्रुप की महिला स्वर यानी ज्ञानिता द्विवेदी की शुरूआत रायपुर से हुई और अब वे मुंबई में एक म्यूज़िक कंपनी से संबद्ध हैं जिसने ‘ब्रह्मास्त्र’ फिल्म का संगीत तैयार करने में भी सहयोग दिया। राजेश सिंह खुद हारमोनियम बजाते हैं, मगर अजय सहाब के इस ग्रुप में अन्य म्यूजीशियन छत्तीसगढ़ से ही जुटे हैं।

इस ग्रुप ने, अभी तक साहिर लुधियानवी के गीतों को विस्तार दिया है। लेकिन उस दौर के दूसरे गीतकारों के गीतों का भी नंबर आएगा। जैसे शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूनी, नीरज वगैरह वगैरह। जिन गीतों को आप कभी भूलना नहीं चाहते, उनमें नए अंतरे पैदा हो रहे हैं, किसी की जिज्ञासा जगाने को इतना काफ़ी है। मगर बात सिर्फ इतनी नहीं है। जब हर चीज़ की शक्ल और मायने बदल रहे हों, विकृत हो रहे हों, उनके टूटने, ढहने और तिरोहित हो जाने की आशंकाएं दरवाज़े पर खड़ी दस्तक दे रही हों, ऐसे में किसी पुराने सपने के दोहराव से बड़ा कोई सुख नहीं हो सकता। खास तौर पर जब उस सपने में कुछ नया जुड़ गया हो।

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By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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