आप कह सकते हैं कि बड़े ऑर्केस्ट्रा की तरह छोटे ऑर्केस्ट्रा यानी बहुत कम वाद्य भी किसी धुन या किसी आवाज़ या किसी खास मौके या किन्हीं खास शब्दों के लिए पर्याप्त प्रभावशाली हो सकते हैं। वाद्यों की संख्या शायद संगीतकार की कल्पनाशीलता पर निर्भर करती है।…नीरज के लिखे गीत ‘जीवन की बगिया महकेगी’ को अगर आप ध्यान से सुनें तो आपको कई चीजें महसूस होंगी। एक यह कि केवल तीन वाद्यों से भी ऐसा जबरदस्त गीत बनाया जा सकता है। दूसरी यह कि आखिर बांसुरी से कितनी तरह की आवाज़ें और माधुर्य पैदा हो सकते हैं। और तीसरी यह कि फिल्म संगीत में हमने कितना-कुछ खो दिया है।
वी. शांताराम की 1943 की फिल्म ‘शकुंतला’ और 1946 में बनी ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ में जयश्री हीरोइन थीं। ये दोनों फिल्में बहुत चली थीं। यही जयश्री वी. शांताराम की दूसरी पत्नी भी थीं। किरण शांताराम और राजश्री उन्हीं की संतानें हैं। किरण मुंबई के शेरिफ रह चुके हैं जबकि राजश्री ‘गीत गाया पत्थरों ने’, ‘जानवर’, ‘ब्रह्मचारी’ और ‘अराउंड द वर्ल्ड’ जैसी फिल्में करने के बाद शादी करके अमेरिका में बस गईं। इन्हीं जयश्री ने एक फिल्म की थी ‘मेहंदी‘ जो 1958 में आई थी। इसमें अजीत उनके हीरो थे। इस फिल्म में रवि का संगीत था। मगर इसमें जयश्री पर फिल्माया गया और लता मंगेशकर का गाया एक ऐसा गीत था जिसमें संगीत बहुत कम था। ख़ुमार बाराबंकवी का लिखा यह गीत था ‘प्यार की दुनिया लुटेगी, हमें मालूम न था।‘ बेहद कम वाद्यों के बावजूद यह गीत उन दिनों बहुत पसंद किया गया था।
फिर 1960 में आई ‘बरसात की रात’ एक ऐसी फिल्म थी जिसे अब तक की सबसे लंबी कव्वाली के लिए जाना जाता है। असल में ये दो कव्वालियां थीं। ‘ना तो कारवां की तलाश है’ और ‘ये इश्क इश्क है इश्क‘, और दोनों को इस तरह जोड़ा गया था कि इनकी कुल लंबाई करीब बारह मिनट हो गई थी। हमारी फिल्मों में इस कव्वाली का कोई सानी नहीं जिसमें सुरों की अतिरिक्त ऊंचाई को छूने की कोशिश की गई थी। मगर इससे एकदम उलट इसी फिल्म में एक गजल ऐसी थी जिसे मोहम्मद रफ़ी ने बेहद कम संगीत के साथ गाया। भारत भूषण पर फिल्माई गई और शकील बदायूनी की लिखी यह गजल थी ‘क्या गम जो अंधेरी हैं रातें।’ इस फिल्म में रोशन का संगीत था और संगीत कम होते हुए भी रफी ने इसे एक धुन में गाया था जो निश्चित ही रोशन ने दी होगी।
आप कह सकते हैं कि बड़े ऑर्केस्ट्रा की तरह छोटे ऑर्केस्ट्रा यानी बहुत कम वाद्य भी किसी धुन या किसी आवाज़ या किसी खास मौके या किन्हीं खास शब्दों के लिए पर्याप्त प्रभावशाली हो सकते हैं। वाद्यों की संख्या शायद संगीतकार की कल्पनाशीलता पर निर्भर करती है। सन 1964 में आई ‘हकीकत’ की एक नज़्म थी जिसमें संगीत तो है, पर वाद्य बहुत कम हैं। मदन मोहन के संगीत में बंधी और कैफ़ी आज़मी की लिखी नज़्म ‘मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था’ को सुन कर आज भी लोग ठिठक सकते हैं। रफ़ी ने इसे बहुत कम संगीत के साथ गाया। फिर भी वह धुन और उस पर लहराती उनकी आवाज़ लोगों की यादों में हमेशा के लिए पैबस्त हो गई।
मगर इससे कई साल पहले इस मामले में इससे भी बड़ा प्रयोग हो चुका था। मोहम्मद रफ़ी ‘प्यासा’ में दो ग़ज़लें बगैर किसी संगीत के गा चुके थे। यह फिल्म 1957 की है और साहिर लुधियानवी की ये दो गजलें थीं ‘तंग आ चुके हैं कश्मकशे जिंदगी से हम’ और ‘गम इस कदर बढ़े कि मैं घबरा के पी गया।’ कई लोगों का कहना है कि रफ़ी ने इन दोनों ग़ज़लों को उसी तरह पढ़ भर दिया है जैसे खुद साहिर पढ़ा करते थे। मगर दोनों गज़लों की गेयता की बुनावट ऐसी है कि यह संभव नहीं लगता कि इस फिल्म के संगीतकार एसडी बर्मन ने रफ़ी को कोई निर्देश नहीं दिए होंगे। वैसे ये दोनों ग़ज़लें दूसरे गीतों की तरह रेडियो या टीवी पर सुनाई नहीं देतीं। शायद इसलिये कि इनमें संगीत नहीं था जिससे ये उतनी लोकप्रिय नहीं हो पायीं।
जो भी हो, ‘प्यासा’ वह आखिरी फिल्म थी जिसमें गीतकार के तौर पर साहिर लुधियानवी और संगीतकार के रूप में सचिन देव बर्मन की जोड़ी थी। कहा जाता है कि इस फिल्म के लिए काम करते हुए किन्हीं मुद्दों पर दोनों के ईगो टकरा गए और दोनों ने तय किया कि इसके बाद कभी साथ काम नहीं करेंगे। इस तरह यह जोड़ी हमेशा के लिए टूट गई। मगर ये दोनों बहुत बड़ी शख़्सियत थे और अलग-अलग काम करते हुए दोनों ही रचनात्मकता और लोकप्रियता की अपनी-अपनी ऊंचाइयों पर हमेशा काबिज़ रहे।
वह सन 1970 का बारिश का एक दिन था। मुंबई में पूरी रात बारिश होती रही थी और शहर की परिवहन व्यवस्था चरमरा गई थी। सुबह से एसडी बर्मन ने एक गीत की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो बुक करा रखा था। लेकिन जब वे किसी तरह वहां पहुंचे तो पाया कि लता मंगेशकर, किशोर कुमार और एक तबला वादक ही स्टूडियो आ सका है। अन्य लोगों के पहुंच पाने की उम्मीद भी नहीं थी। चाहते तो बर्मन साहब रिकॉर्डिंग किसी और दिन के लिए टाल देते। लेकिन उन्होंने अपनी संगीत योजना बदली और कहीं पास ही में रहने वाले अपने मित्रों पंडित शिव कुमार शर्मा और हरि प्रसाद चौरसिया से गुजारिश की। थोड़ी ही देर में वे दोनों स्टूडियो पहुंच गए और बाकायदा गीत रिकॉर्ड हुआ। लता और किशोर की आवाज़ों के साथ इस गीत में केवल तबले, संतूर और बांसुरी की संगत है। केवल तीन वाद्य। यह गीत देव आनंद की फिल्म ‘तेरे मेरे सपने’ का था जो अगले साल यानी 1971 में रिलीज़ हुई। नीरज के लिखे इस गीत ‘जीवन की बगिया महकेगी’ को अगर आप ध्यान से सुनें तो आपको कई चीजें महसूस होंगी। एक यह कि केवल तीन वाद्यों से भी ऐसा जबरदस्त गीत बनाया जा सकता है। दूसरी यह कि आखिर बांसुरी से कितनी तरह की आवाज़ें और माधुर्य पैदा हो सकते हैं। और तीसरी यह कि फिल्म संगीत में हमने कितना-कुछ खो दिया है।
छोटे ऑर्केस्ट्रा का कमाल जो भुलाए न बने
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