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साडा चिड़ियां दा चंबा वे

सलमान खान ने ‘किसी का भाई किसी की जान’ की रिलीज से एक दिन पहले अपने तमाम करीबियों और बड़े स्टारों के लिए इसकी जो स्पेशल स्क्रीनिंग रखी थी, वह पामेला चोपड़ा के निधन की खबर सुन कर रद्द कर दी गई। पामेला दिग्गज फिल्मकार यश चोपड़ा की पत्नी थीं और आज के बड़े फिल्मकार आदित्य चोपड़ा की मां थीं। लेकिन केवल यही वजह नहीं थी कि हिंदी फिल्मों के ज्यादातर लोग उन्हें इज्जत देते थे। वे भरतनाट्यम की प्रशिक्षित डांसर थीं। वे लेखिका भी थीं। ‘दिल तो पागल है’ का स्क्रीनप्ले लिखने में वे शामिल रहीं। ‘कभी कभी’ की कहानी उन्होंने लिखी थी। इसी तरह ‘सिलसिला’ में उन्होंने कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की जिम्मेदारी निभाई थी जबकि ‘आईना’ में वे निर्माता थीं।

यशराज की कितनी ही फिल्मों में वे एसोसिएट प्रोड्यूसर रहीं। इस हैसियत से वे लगातार सेट पर मौजूद रहती थीं और यश चोपड़ा हमेशा उनकी सलाह को अहमियत देते थे। सोलह साल बड़े यश चोपड़ा से 1970 में शादी करके वे दिल्ली से मुंबई आईं तो पहली बात उन्होंने यह सीखी कि अगर वे पति के काम में शामिल हो जाएंगी तो देश-विदेश सब जगह उसके साथ ही रहेंगी। इसीलिए आदित्य और उदय के थोड़ा बड़े होते ही उन्होंने प्रोडक्शन पर ध्यान देना शुरू किया। इसे संयोग ही मानना चाहिए कि उनसे शादी के बाद ही यश चोपड़ा बड़े भाई की बीआर फिल्म्स को छोड़ अपना अलग प्रोडक्शन हाउस बनाने की जिद करने लगे। आखिर 1973 में यशराज फिल्म्स की शुरूआत हुई। यश चोपड़ा के अलावा यह पामेला के भी कुछ अपना करने के सपने की बुनियाद थी।

संगीतकार ख़य्याम बताया करते थे कि ‘उमराव जान’ के लिए उन्होंने आशा भोंसले को सुझाया कि अगर वे अपने सामान्य सुर से एक सुर नीचे गाय़ें तो रिज़ल्ट ज्यादा अच्छा आएगा। इस पर आशा भड़क गईं। उन्हें लगा कि उनकी आवाज़ की बुराई हो रही है। ख़य्याम ने कहा कि फिर मेरी पत्नी जगजीत कौर ने आशा को समझाया कि गाकर तो देखो, तुम्हें अच्छा नहीं लगा तो तुम जैसे कहोगी वैसे रिकॉर्ड कर लेंगे। लेकिन जब रिकॉर्डिंग हुई तो आशा को अच्छा लगा और ‘उमराव जान’ के सभी गाने उनकी एक सुर निचली आवाज़ में तैयार हुए। असल में खैयाम बताना चाहते थे कि दशकों तक उन्हें संगीत का जो भी काम मिला उसे पूरा करने में उनकी पत्नी जगजीत कौर हमेशा उनके साथ रहीं। बहुत से फैसले वे उनकी सलाह पर या मिलजुल कर करते थे। नाम खय्याम का ही होता था, पर उसके पीछे जगजीत भी रहती थीं। ठीक यही स्थिति यश चोपड़ा और पामेला चोपड़ा की थी। यश चोपड़ा को जहां भी कोई फैसला लेने में उलझन होती वहां पामेला उनकी मदद के लिए उपलब्ध रहतीं। उनके नाम के पीछे छुपी हुईं।

कमाल देखिए कि इन्हीं खय्याम साहब के संगीत में 1976 में ‘कभी-कभी’ में पामेला चोपड़ा ने अपना पहला गीत ‘साडा चिड़ियां दा चम्बा वे’ लता मंगेशकर के साथ गाया था। कुछ बरस बाद 1982 में सागर सरहदी की ‘बाज़ार’ में जगजीत कौर के साथ पामेला ने ‘चले आओ सैयां रंगीले मैं हारी रे’ गाया। खय्याम ने उनसे कई गीत गवाए। उनके अलावा पामेला ने शिव-हरि, राजेश रोशन आदि के संगीत में करीब दो दर्जन गीतों को अपनी आवाज़ दी। जतिन-ललित के संगीत में ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ का ‘घर आजा परदेसी तेरा देस बुलाए रे’ और ‘चांदनी’ का ‘मैं ससुराल नहीं जाउंगी’ गीत बेहद पसंद किया गया। आप कह सकते हैं कि पामेला चोपड़ा के स्क्रिप्ट या कॉस्ट्यूम या प्रोडक्शन के तमाम काम यश चोपड़ा के नाम के पीछे खो जाते थे। केवल गायिकी का क्षेत्र ऐसा था जहां सिर्फ वे होती थीं। जहां उनका अपना व्यक्तित्व उभर कर आता था।

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By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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