बेबाक विचार

प्रदेशों में जर्जर भाजपा तभी दमदार क्षत्रप

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प्रदेशों में जर्जर भाजपा तभी दमदार क्षत्रप
कांग्रेस के बारे में जानी हुई बात है कि उसने राज्यों में भाजपा से लड़ने का जिम्मा प्रादेशिक पार्टियों को सौंप दिया है। दिल्ली के नतीजों के बाद पी चिदंबरम को जवाब देते हुए प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने सवाल किया कि क्या राज्यों में भाजपा से लड़ने का जिम्मा कांग्रेस ने क्षेत्रीय पार्टियों को आउटसोर्स कर दिया है? हां, ऐसा है और यह कांग्रेस की ठिक रणनीति है। यह बात कई तरह से साबित हो चुकी है कि कांग्रेस राज्यों में रणनीतिक रूप से क्षेत्रीय पार्टियों को आगे करके लड़ रही है ताकि भाजपा को रोका जाए। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से शुरू करके झारखंड, महाराष्ट्र होते हुए दिल्ली तक कांग्रेस ने प्रादेशिक पार्टियों के सामने सरेंडर किया। यह सरेंडर अलग अलग तरह का है पर मकसद एक है और वह भाजपा को रोकना है। इसलिए भाजपा को ज्यादा सोचना है कि वह कैसे प्रादेशिक पार्टियों को रोकेगी या क्षत्रपों को हराएगी। देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा अब इस नाते बेमानी है कि कांग्रेस कहीं लड़ती नहीं दिख रही है और न लड़ने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस ने प्रादेशिक क्षत्रपों को आगे किया हुआ है। दिल्ली में कांग्रेस ने इसी रणनीति के तहत बिल्कुल सरेंडर कर दिया ताकि वह वोट काट कर आम आदमी पार्टी का नुकसान न कर सके। इसके लिए कांग्रेस अपना विचारधारात्मक आग्रह भी छोड़ रही है। जैसे उसने महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ तालमेल कर लिया। कांग्रेस अपने नुकसान या खुद खत्म हो जाने की कीमत पर भी भाजपा को रोक रही है। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस के सबसे बुजुर्ग नेताओं में से एक और लगातार 15 साल तक असम के मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई ने राज्य में एक नई पार्टी की जरूरत बताई है। यह मामूली बात नहीं है जो गोगोई ने कहा कि असम में एक नई पार्टी की जरूरत है। असल में वे नागरिकता कानून के खिलाफ सबसे आक्रामक होकर लड़ रहे ऑल असम स्टूडेंट यूनियन, आसू को प्रेरित कर रहे हैं कि वह एक राजनीतिक पार्टी बनाए। कांग्रेस पार्टी को पता है कि वह भाजपा को नहीं हरा पाएगी और न बदरूद्दीन अजमल की पार्टी हरा पाएगी। इसलिए वह असम गण परिषद किस्म का एक प्रयोग कराना चाहती है। ध्यान रहे अगले ही साल असम में चुनाव होने वाले हैं। उससे पहले कांग्रेस एक नई प्रादेशिक पार्टी खड़ी कराना चाहती है, जिससे कांग्रेस को भी नुकसान होगा पर भाजपा को उसके जरिए रोका जा सकेगा। सोचें, जब कांग्रेस इस स्थिति तक जाकर भाजपा को रोकने की रणनीति पर काम कर रही है तो क्या भाजपा के लिए सोचने का समय नहीं है कि वह प्रादेशिक क्षत्रपों को कैसे हराएगी? असल में आजादी के बाद से भारतीय जनसंघ और उसके बाद भाजपा दोनों की लड़ाई कांग्रेस से रही है। तभी भाजपा ने कांग्रेस से लड़ने का हथियार विकसित किया है। समाजवादी पार्टियों या नई नई बनने वाली प्रादेशिक पार्टियों से लड़ने का हथियार भाजपा के पास नहीं है। तभी वह तमाम प्रयासों के बावजूद झारखंड मंं झारखंड मुक्ति मोर्चा से मुकाबले का तरीका नहीं खोज पाई है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाजपा की कमान संभालने के बावजूद दो चुनावों में उसकी सीटें बढ़ी हैं। इसी बात को समझते हुए कांग्रेस ने इस बार जेएमएम को आगे किया। खुद कम सीटें लीं और भाजपा की राज्य सरकार के तमाम कामकाज के बावजूद पार्टी को जीत से रोक दिया। बिहार में कांग्रेस ने यहीं काम 2015 में किया था। ध्यान रहे कांग्रेस के कहने पर लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को नेता माना था। इस बार भी कांग्रेस इसी उधेड़बुन में है कि कैसा समीकरण बनाया जाए, जिससे भाजपा और जदयू का तालमेल टूटे और अगर तालमेल रहे भी तो उसे रोका जा सके। ऐसे ही कांग्रेस कुछ नया दांव पश्चिम बंगाल में चलेगी, जहां अगले साल भाजपा को ममता बनर्जी से मुकाबला करना है। अभी तो लग रहा है कि कांग्रेस और लेफ्ट मिल कर लड़ेंगे पर संभव है कि चुनाव समय उम्मीदवारों का चयन इस प्रकार से हो कि ममता बनर्जी की पार्टी को फायदा मिले। अगले साल तमिलनाडु में भी चुनाव होना है। वहां पहले से कांग्रेस ने डीएमके के सामने सरेंडर किया हुआ है। ध्यान रहे दक्षिण में तमिलनाडु ही भाजपा के लिए सबसे मुश्किल राज्य है। वहां से उसका एक भी विधायक नहीं जीत पाया है। तमिलनाडु हो या आंध्र प्रदेश, तेलंगाना सब जगह प्रादेशिक क्षत्रपों ने भाजपा को रोका हुआ है और सारे प्रादेशिक क्षत्रप कांग्रेस की कीमत पर पनपे हैं। इनके मामले में एक खास बात यह भी है कि इनमें से ज्यादातर क्षत्रप किसी न किसी समय भाजपा के साथ रह चुके हैं और भाजपा का विरोध करते हुए किसी न किसी तरीके से वे यह मैसेज दे देते हैं कि वे आगे भी भाजपा के साथ जा सकते हैं। इससे मतदाताओं में कंफ्यूजन रहता है। बिहार के 2015 के चुनाव में भी नीतीश को लेकर यहीं भाव था और पिछले साल झारखंड में जेएमएम को लेकर भी मतदाताओं में यहीं भाव था। डीएमके हो या टीडीपी या वाईएसआर कांग्रेस या बसपा, शिव सेना, इनेलो, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी आदि तमाम क्षत्रप भाजपा के साथ गठबंधन में रह चुके हैं। सो, अब भाजपा को दो काम करने होंगे। पहले तो अपने विचारधारात्मक सहयोगियों को पहचान कर उन्हीं से तालमेल करने का मैसेज देना होगा और दूसरे इस पर नजर रखनी होगी कि कांग्रेस कैसे प्रादेशिक क्षत्रपों का इस्तेमाल कर रही है। क्योंकि इसी तरह अगर राज्यों में क्षत्रपों के सामने भाजपा हारती रही तो लोकसभा चुनाव में भी वह बहुत कमजोर हो जाएगी।
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