बेबाक विचार

दिल्ली झांकी, देश बाकी!

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दिल्ली झांकी, देश बाकी!
आजाद भारत अब दंगों से आगे बढ़ गया है। देश के गृह मंत्री अमित शाह बार-बार पानीपत की लड़ाई का जो चुनावी आह्वान किया करते थे और चुनावी गृहयुद्ध की आबोहवा में जैसे चुनाव लड़ा करते थे उसमें दिल्ली की हिंसा निर्णायक मोड़ है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने धूर्तता दिखाई जो अपने को हनुमानजी का भक्त बता कर हिंदू -मुस्लिम नहीं होने दिया और चुनाव जीत लिया। ऐसा बिहार में, पश्चिम बंगाल में, उत्तर प्रदेश में याकि उत्तर भारत के प्रदेशों मंं नहीं हो सकता। राहुल, तेजस्वी, अखिलेश, ममता बनर्जी आदि के लिए हनुमान या दुर्गा भक्त बन कर अरविंद केजरीवाल की तरह मोदी-शाह को रोक सकना संभव नहीं होगा। फिर सबसे बड़ी बात असली लड़ाई दिल्ली के तख्त याकि 2024 के लोकसभा चुनाव की है। तभी दिल्ली हिंसा एक प्रयोग है। अपना सन् 2002 में भी मानना था और 2020 के मौजूदा वक्त में 22-23 फरवरी की रात-सुबह की घटनाओं की प्रारंभिक जानकारी से भी मानना है कि तब भी मुसलमानों ने गलती की और अब भी गलती की। सेकुलरों ने तब भी गलती की अब भी गलती की। गोधरा ट्रेन को जलाने की चिंगारी हिंदू उन्माद पैदा करने वाली थी तो 22-23 फरवरी को कपिल मिश्रा के प्रदर्शन पर मुस्लिम बस्ती से प्रतिक्रिया भी हिंदू उन्माद की जनक थी। गोधरा से पहले सेकुलर जमात ने हिंदू कारसेवकों का नैरेटिव बनाया तो इस बार शाहीन बाग पर नैरेटिव यह जानते-समझते हुए भी बनाया कि ऐसे प्रदर्शन-धरने से मोदी-शाह के कान पर जूं नहीं रेंगने वाली। अपनी जगह तर्क सही है कि लोकतंत्र में क्या धरना-प्रदर्शन भी नहीं होगा? पर मुस्लिम जमात, सेकुलर नेताओं और विरोधी पार्टियों को क्यों यह नहीं समझा हुआ होना चाहिए कि मोदी-शाह की राजनीति तब खिलती ही है जब हिंदू बनाम मुस्लिम का विभाजक नैरेटिव का ज्वार बनता जाए। इस बात को जान लिया जाए कि मुसलमान के लिए फिलहाल दुनिया में या इस देश में यह सहानुभूति नहीं बनेगी कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। इस्लाम को, मुस्लिम नेताओं को, सेकुलर राष्ट्रवादियों सभी को समझना होगा कि जैसे दुनिया चाहती है, बहुसंख्या चाहती है वैसे मुसलमान को रहना होगा। नागरिकता संशोधन कानून या एनआरसी को, तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर या अयोध्या में मंदिर आदि यदि बहुसंख्यक आबादी के लोकतांत्रिक अधिकार में बना एजेंडा है तो उसे धरना-प्रदर्शन-संविधान के हवाले बदलवाया नहीं जा सकता। इसलिए वारिस पठान हों या शाहीन बाग, दोनों मोदी-शाह के लिए राजनीतिक औजार है। सोचें, यदि मुसलमान समझदारी दिखाते हुए दिल्ली में विधानसभा चुनाव से पहले शाहीन बाग धरने को खत्म कर देते और केजरीवाल जीत जाते तो न अमित शाह, कपिल मिश्रा के लिए एजेंडा बचता और न भाजपा की जीत हुई दिखती। पर केजरीवाल की जीत से मुस्लिम धरने और बढ़े तो सेकुलर हल्ला भी बढ़ा। नतीजतन वह मौका बना, जिसमें दिल्ली से पूरे देश के लिए झांकी बन गई। तय मानें कि बिहार का चुनाव इसी झांकी अनुसार लड़ा जाएगा। दिल्ली की हिंसा सीएए कानून पर ठप्पा है। आगे एनआरसी के लिए मोदी-शाह को प्रोत्साहन है। अपने को आश्चर्य नहीं होगा जो ससंद के मॉनसून सत्र में एनआरसी आदि को ले कर सरकार दो टूक फैसला ले। कानून बना दे। बिहार विधानसभा और नीतीश कुमार चाहे जो पैंतरा चलें अमित शाह के लिए चुटकी में सब कुछ बदलने के अवसर है। भला क्यों? इसलिए कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह जानते हैं कि आर्थिकी से, सामाजिक समीकरण, सबका साथ-सबका विकास से 2024 तक वोट नहीं पके रहने वाले। वोट का शर्तिया और इकलौता तरीका हिंदू बनाम मुस्लिम, एनआरसी, अयोध्या में मंदिर के बाद काशी में मंदिर, पीओके जैसे मुद्दों से ही वोट पकते जाने हैं। मुसलमान-दलित के गठजोड़ ने भी हिंदू राजनीति में ‘उनकी’ ठुकाई की थीसिस को जातियों की एकजुटता का पुख्ता फार्मूला बनाया है। हां, दिल्ली की हिंसा में भी पिछड़ी जातियों-फारवर्ड की एकजुटता की जो चर्चा है वह बिहार के लिए हिट है तो उत्तर प्रदेश में भी जीत की गारंटी है। सचमुच दिल्ली हिंसा ने मोदी-शाह के एजेंडे का वह रास्ता बनवाया है, जिसमें मुसलमान को अनिवार्यतः या तो मौन रहना होगा या दिल्ली जैसी हिंसा के लिए तैयार रहना होगा। इस सबसे भारत राष्ट्र-राज्य का क्या बनेगा, यह सवाल अपनी जगह अलग है!
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