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बंगाली उप राष्ट्रीयता के धोखे में ममता

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बंगाली उप राष्ट्रीयता के धोखे में ममता
ममता बनर्जी जुझारू और स्ट्रीट फाइटर नेता होने के साथ साथ एक सभ्य और सुसंस्कृत महिला भी हैं। उन्होंने साहित्य, कला, फिल्म, पत्रकारिता से जुड़े लोगों को अपनी पार्टी की टिकट देकर लोकसभा या राज्यसभा में पहुंचाया। वे कविताएं लिखती हैं, पेंटिंग्स करती हैं और गाने भी गाती हैं। वे जब भी दिल्ली आती हैं और अपनी पार्टी के सांसदों के साथ बैठती हैं तो सहज सांस्कृतिक बांग्ला भाव से वे खुद भी गाने गाती हैं और उनके दूसरे सांसद भी गाते हैं। वे रविंद्र संगीत जानती हैं और उनको बांग्ला भाषा की गौरवशाली संस्कृति के बारे में सब कुछ पता है। तमाम हिंसक टकरावों के बावजूद ये सारे गुण पश्चिम बंगाल के वामपंथी नेताओं में भी थे, जिनसे दो दशक से ज्यादा समय तक ममता लड़ती रहीं। पर इस बार उनका पाला ऐसे लोगों से पड़ा है, जिनको इन सब चीजों से कोई लेना देना नहीं है। उनके लिए हर चीज सत्ता पाने का साधन है। ममता बनर्जी को यह बात लोकसभा चुनाव के नतीजों से समझ में आ जानी चाहिए थी। पर हैरानी की बात है कि वे अब भी इस भ्रम में हैं कि बंगाली उप राष्ट्रीयता का उनका दांव भाजपा के हिंदुवादी राष्ट्रवाद की काट है। लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने बंगाली उप राष्ट्रीयता को ही मुद्दा बनाया था। उन्होंने बंगाली अस्मिता को आगे किया था और उसके आधार पर भाजपा के हिंदुवादी एजेंडे को काउंटर किया था। पर कामयाबी नहीं मिली। भाजपा ने लोकसभा की 18 सीटें जीत लीं। कहां 2014 के नरेंद्र मोदी की लहर में पार्टी को सिर्फ दो सीटें मिली थीं। पर पांच साल में यह बदलाव हुआ कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी नंबर दो पार्टी हो गई। कांग्रेस और लेफ्ट दोनों तीसरे और चौथे नंबर की पार्टी हैं। हर जगह तृणमूल कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा के साथ है। ममता बनर्जी अभी भी जो कर रही हैं वह दरअसल भाजपा के एजेंडे पर ही प्रतिक्रिया दे रही हैं और इस तरह अपना नहीं भाजपा का ही भला कर रही हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि भाजपा ने पश्चिम बंगाल की सामाजिक संरचना की ऐतिहासिक फॉल्टलाइन को पहचाना है और उसे उजागर करना शुरू कर दिया है। ममता बनर्जी को यहीं बात समझ में नहीं आ रही है। असल में बंगाली उप राष्ट्रीयता एक मिथक है और हिंदू बनाम मुस्लिम का टकराव हकीकत है। तीन दशक से ज्यादा समय के कम्युनिस्ट राज और उसके बाद करीब एक दशक के ममता बनर्जी के राज में वोट बैंक की राजनीति के तहत मुसलमानों की पूछ रही है। उनको मनमानी की छूट मिली हुई है। अगर अमित शाह आज कहते हैं कि बंगाल में हिंदुओं को दुर्गापूजा करने के लिए कलेक्टर से अनुमति लेनी होती थी, तो वे गलत नहीं कहते हैं। इस तरह की बातों ने ही हिंदू भावना को उद्वेलित किया है, जो पिछले 50 साल से दबी रही हैं। आज कोई भी यह सवाल पूछ सकता है कि अगर बंगाल की सांस्कृतिक आबोहवा में बांग्ला उप राष्ट्रीयता उसकी पूरी आबादी के लिए एक समान रही है तो पिछले 50 साल में किस मुस्लिम ने बांग्ला भाषा और उसकी संस्कृति के लिए क्या किया है? अगर धर्म से ऊपर बांग्ला उप राष्ट्रीयता है तो आबादी के अनुपात में मुस्लिम साहित्यकार, कलाकार, लेखक, बौद्धिक, खिलाड़ी पैदा होने चाहिए थे। अमर्त्य सेन, अभिजीत बनर्जी या सुनील बंदोपाध्याय, सौरव गांगुली नहीं तो इनसे कम प्रतिभा का भी कोई मुस्लिम आगे आना चाहिए था। राजनीति में तो जरूर मुस्लिम नेता आगे बढ़े पर बांग्ला संस्कृति को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं दिखता है। अगर हो भी तो वह अपवाद ही होगा। सो, जाहिर है कि बांग्ला उप राष्ट्रीयता कभी भी पश्चिम बंगाल के मुसलमानों का सरोकार नहीं रही है। इस बात को बहुसंख्यक हिंदुओं को समझा दिया गया है। इसलिए ममता को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उनको बांग्ला उप राष्ट्रीयता बचा लेगी। वे बेशक बंगाली महापुरुषों की मूर्तियां लगवाएं पर इससे हिंदू-मुसलमान का नैरेटिव नहीं बदलना है। बंगाली हिंदू के मन में यह बात बैठी है कि बांग्ला अस्मिता सिर्फ उसी का सरोकार है। भाजपा इस बात को उभार कर ही ध्रुवीकरण करा रही है। दूसरे, बंगाली अस्मिता के मामले में ममता का विरोधाभास यह है कि वे नागरिकता कानून का विरोध कर रही हैं, जिससे सबसे ज्यादा नुकसान बंगाली हिंदुओं का ही होना है। ध्यान रहे असम की एनआरसी से बाहर छूट गए ज्यादातर लोग बंगाली हिंदू हैं। अगर नागरिकता कानून लागू होता है तो उन सबको भारत की नागरिकता मिलेगी। एक तरफ तो ममता बनर्जी अपने राज्य में बांग्ला भाषियों की अस्मिता का मुद्दा उठा रही हैं और दूसरी ओर करीब 14 लाख बंगाली हिंदुओं के भारत का नागरिक बनने के रास्ते में रोड़ा अटका रही हैं। उनको बंगाल में हिंदुओं के बीच इस बात का जवाब देना होगा। तभी उनको सबसे पहले अपने इस मुगालते से बाहर आना होगा कि बांग्ला उप राष्ट्रीयता भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद के नैरेटिव पर भारी है। इस बात को उनको इस संदर्भ में भी समझना होगा कि पश्चिम बंगाल देश के उन चंद राज्यों में से एक है, जहां भाजपा किसी रूप में सत्ता में नहीं रही है। वह हमेशा हाशिए की पार्टी रही और सत्ता में छोटी साझीदार भी नहीं रही है। तभी लोगों के मन में उसके प्रति एक किस्म की जिज्ञासा भी है। कांग्रेस, लेफ्ट और तृणमूल के बरक्स उसके शासन को आजमाने की सोच भी है। यह सोच भाजपा के इस एजेंडे से बनी है कि वह हिंदुओं के लिए काम करेगी। और हकीकत यह है कि ममता बनर्जी इस मैसेज की काट नहीं खोज पा रही हैं। उन्हे बांग्ला उप राष्ट्रवाद से आगे बढ़ कर उनको बहुसंख्यक हिंदू समाज के मनोविज्ञान को समझना होगा।
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