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घनचक्करी झूले पर झूलता कांग्रेस अधिवेशन

मुझे लगता है कि आज़ादी के बाद हो रहा 31वां कांग्रेस-अधिवेशन अब तक का सबसे नीरस और निरर्थक आयोजन साबित होने वाला है।… मैं अब आश्वस्त होता जा रहा हूं कि राहुल गांधी के पसीने की बूंदों को सहेज कर संगठन के खेत की सिंचाई करने में आज की कांग्रेसी-टोली की कोई दिलचस्पी नहीं है। उनमें से ज़्यादातर की दिलचस्पी ख़ुद के अलावा किसी चीज़ में नहीं है।

रायपुर में होने वाला 85 वां कांग्रेस-अधिवेशन घनचक्करी झूले पर झूलता दिखाई दे रहा है। मौका मिलते ही राहुल गांधी की हर पुण्याई में मट्ठा डालने की आतुरता पाले बैठा झुंड सतह के नीचे की राह पोली करने के अपने काम में दिन-रात लगा हुआ है। अधिवेशन होगा, मगर महज़ औपचारिकता पूरी करने के लिए। पहले वह तीन दिनों के लिए होना था, जैसा कि आमतौर पर हुआ करता है, लेकिन अब उसे सिर्फ़ 24 और 25 फरवरी को ही आयोजित करने की सुगबुगाहट है। पहले लग रहा था कि अधिवेशन के दौरान पार्टी की कार्यसमिति का बाक़ायदा चुनाव भी होगा, लेकिन अब आंतरिक लोकतंत्र के प्रतिलोम-तोपचियों ने इस मंसूबे में पलीता लगा दिया है। कांग्रेस-अधिवेशन के अंतिम दिन होने वाली जनसभा का आयोजन भी ठंडी गठरी में जाता दिखाई दे रहा है।

लगता है कि सोनिया गांधी अधिवेशन में जा ही नहीं रही हैं। राहुल और प्रियंका गांधी के भी सिर्फ़ पहले दिन ही भागीदारी के संकेत हैं। राहुल फरवरी के अंतिम सप्ताह में कैंब्रिज विश्वविद्यालय की संगोष्ठी में भागीदारी के लिए लंदन जा रहे हैं। इस बार वे वहां श्रुति कपिला के साथ निरुद्ध-सत्रों में ‘जनतंत्र और सूचना महासंग्रह’ तथा ‘भारत-चीन संबंध’ पर चर्चा करेंगे। लोकतंत्र में बिग-डेटा के उपयोग-दुरुपयोग को ले कर बंद दरवाज़ों के पीछे होने वाली राहुल की बातचीत को ले कर कैंब्रिज-परिसर में जितनी उत्सुकता है, ज़ाहिर है कि उससे ज़्यादा प्रबलेच्छा भारत और चीन के रिश्तों पर राहुल के विचार जानने के लिए है। राहुल के इन चर्चा-सत्रों के आयोजन में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के बैनेट इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, सेंटर फॉर जियोपॉलिटिक्स और हिस्ट्री फैकल्टी की भी सक्रिय हिस्सेदारी है।

मैं मानता हूं कि जब मतलबपरस्त झुरमुट के सौजन्य से पार्टी-अधिवेशन महज़ रस्म-अदायगी में तब्दील हो जाए तो उसके मंच पर बैठे ऊंघते नेताओं की जमात के बीच अपना वक़्त ज़ाया करने के बजाय राहुल के लिए कैंब्रिज के विद्यार्थियों से विमर्श ज़्यादा सार्थक कर्म है। जब अधिवेशन के प्रस्तावों-भाषणों से कोई अनोखा विचार-झरना बहना नहीं है, जब कांग्रेस-अध्यक्ष के चुनाव से मजबूत हुई अंदरूनी जनतंत्र की प्रक्रिया को कार्यसमिति चुनाव की तार्किक परिणिति तक पहुंचना नहीं है और जब अंततः ढाक के वही तीन पात ही लहलहाने हैं तो राहुल इस लकीर की फ़कीरी में अपनी शिरकत सीमित रख अच्छा ही कर रहे हैं। सोनिया अगर अधिवेशन में नहीं जाती हैं और राहुल-प्रियंका उसमें आधे समय ही मौजूद रहते हैं तो इसके अलावा इसका अर्थ और क्या हो सकता है कि संगठन की संचालन शैली उनके मनोनुकूल नहीं है।

मुझे लगता है कि सोनिया-राहुल-प्रियंका कार्यसमिति का चुनाव कराने के पक्ष में हैं। मैं जानता हूं कि कांग्रेस के बहुत-से ज़मीनी-दिग्गज भी पार्टी-संविधान की व्यवस्था के मुताबिक कार्यसमिति के 12 सदस्यों का चुनाव चाहते हैं। मगर असुरक्षित-भाव से थरथराते रहने वाले काग़ज़ी-दिग्गज चुनाव के ख़िलाफ़ हैं। वे जानते हैं कि उनमें से कोई भी जीत कर कार्यसमिति में नहीं आ पाएगा। सो, तैयारी है कि कार्यसमिति के सभी सदस्यों की नामजदगी का अधिकार ध्वनि-मत से कांग्रेस-अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को सौंप दिया जाए।

कांग्रेस-संविधान की धारा 21 में व्यवस्था है कि पार्टी-अध्यक्ष और कांग्रेस संसदीय दल के नेता कार्यसमिति के स्वतः सदस्य माने जाते हैं। यानी खड़गे और सोनिया को तो चुनाव लड़ने की ज़रूरत ही नहीं है। हालांकि संवैधानिक व्यवस्था नहीं है, मगर परंपरा है कि पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री को भी कार्यसमिति में नामजद किया जाता है। सो, राहुल और मनमोहन सिंह को भी चुनाव लड़ने की ज़रूरत नहीं है। बचीं प्रियंका तो क्या आपको लगता है कि अगर वे चुनाव लड़ेंगी तो हार जाएंगी? सोनिया, राहुल और मनमोहन सिंह भी चुनाव लड़ कर ही कार्यसमिति में प्रवेश करना चाहें तो क्या उन्हें कोई हरा सकता है? पार्टी में ऐसे और दर्जनों दिग्गज हैं, जो अगर लड़े तो जीतेंगे। तो हारने का डर आख़िर है किन्हें? वे कौन हैं, जिन्हें नामजदगी का ही सहारा है? अगर 12 सदस्यों के लिए चुनाव हो जाए तो मनोनयन की गुंजाइश तो सिर्फ़ 9 की ही बचती है। प्रियंका की भी नामजदगी के बाद 8 की ही। इन आठ अनारों को लपकने के लिए आठ दर्जन बीमार तो वैसे ही घूम रहे हैं। तो इस मर्ज़ के मारों का पूरा ज़ोर इस पर है कि कार्यसमिति में सभी 23 सदस्य मनोनयन के ज़रिए ही नियुक्त किए जाएं।

ताज़ा इतिहास में मतदान के ज़रिए कार्यसमिति का चुनाव दो बार हुआ है। मैं 1992 में 14 से 16 अप्रैल तक तिरुपति में बसाए गए तंबू-शहर मरैमलैनगर में हुए उस कांग्रेस अधिवेशन में मौजूद था, जिसमें पामुलपर्ति नरसिंह राव ने कार्यसमिति का चुनाव कराया था। मैं कलकत्ता में 8 से 10 अगस्त 1997 के बीच हुए उस कांग्रेस अधिवेशन में भी था, जिसमें सीताराम केसरी को कार्यसमिति के लिए मतदान कराना पड़ा था। बाद में दोनों कार्यसमितियों के हश्र की अपनी कथा है, लेकिन दोनों ही बार हुई ज़ोर-आजमाइश का भी अपना दिलचस्प किस्सा है। इस बार अगर रायपुर में कार्यसमिति के लिए मतदान हो जाता तो हम-आप कांग्रेस में उठापटक और धमाचौकड़ी के नए इतिहास की रचना होते देखते।

तैयारियों का आभा-मंडल गढ़ने में कांग्रेस कभी कोई कोताही नहीं करती है। आजकल यह ललक और बढ़ गई है। सो, रायपुर अधिवेशन में पारित होने वाले छह प्रस्तावों का मसौदा बनाने के लिए एक तो मुख्य समिति बनाई गई है और छह उपसमितियां भी गठित की गई हैं। इनमें 126 लोग हैं, जो राजनीतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय, खेती-किसानी, सामाजिक न्याय और युवा-शिक्षा-रोज़गार के मुद्दों पर प्रस्तावों के प्रारूपों को आकार देंगे। इन समितियों से ऐसे-ऐसों को बाहर रखा गया है कि आप की आंखें फट जाएं और ऐसे-ऐसों को शामिल किया गया है कि आपकी आंखें दोबारा और ज़ोर से फट जाएं।

मुझे लगता है कि आज़ादी के बाद हो रहा 31वां कांग्रेस-अधिवेशन अब तक का सबसे नीरस और निरर्थक आयोजन साबित होने वाला है। देश को स्वाधीनता मिलने के बाद पहला कांग्रेस-अधिवेशन जयपुर में 18 दिसंबर 1948 को हुआ था। पट्टाभि सीतारमैया उसमें अध्यक्ष बने थे। यूं वह कांग्रेस की स्थापना के बाद से 55वां अधिवेशन था और पट्टाभि की ताजपोशी की पटकथा में कई मोड़ आए थे। आज़ादी के बाद अब तक हुए 30 अधिवेशनों में से 13 की अध्यक्षता नेहरू-गांधी परिवार के बाहर के लोगों ने की है। 17 बार परिवार के सदस्यों ने अध्यक्षता की। सबसे ज़्यादा बार सोनिया गांधी ने – 10 बार। 3 बार जवाहरलाल नेहरू ने, 2 बार इंदिरा गांधी ने और एक-एक बार राजीव गांधी और राहुल ने अध्यक्षता की। रायपुर का अधिवेशन 14वां होगा, जिसकी अध्यक्षता एक बार फिर नेहरू-गांधी परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति करेगा।

मैं अब आश्वस्त होता जा रहा हूं कि राहुल गांधी के पसीने की बूंदों को सहेज कर संगठन के खेत की सिंचाई करने में आज की कांग्रेसी-टोली की कोई दिलचस्पी नहीं है। उनमें से ज़्यादातर की दिलचस्पी ख़ुद के अलावा किसी चीज़ में नहीं है। अपने को पार्टी के अध्यक्ष पद से अलग कर के, उस फ़ैसले पर दृढ़ रह कर, पार्टी को परिवार से बाहर का निर्वाचित अध्यक्ष दे कर और डेढ़ सौ दिनों में पौने चार हज़ार किलोमीटर की पैदल यात्रा कर राहुल ने इस बीच कांग्रेस के लिए जिस सकारात्मक साख और ऊर्जा का व्यापक संचार किया, उसे ठिकाने लगाने में लगी गाजर-घास से मुक्ति पाए बिना कांग्रेस अपना भव-सागर कभी पार नहीं कर पाएगी। कोई समझे तो ठीक। न समझे तो ठीक। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

 

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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