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लथपथ, अग्निपथ

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लथपथ, अग्निपथ
आज असंतोष जताना आसान नहीं है। असंतोष जताना हिंसक होता जा रहा है। सभ्‍य समाज के लिए जरूरी है कि उसका असंतोष जताना अहिंसक ही रहे। हिंसा से जताए गए असंतोष के कारण सत्‍ता को भी हिंसा की आजादी मिलती है। आज भीड़तंत्र से जो अशांति फैल रही है उस पर काबू पाने में समाज और सरकार दोनों असफल रहे हैं। सरकार अग्निपथ पर अड़ी है। युवा सरकारी व्यवस्था को लथपथ करने पर जुटे हैं। दोनों ही शपथ ले रहे हैं कि उनको न सुनना है, न समझना है। समाज की संपत्ति और व्यवस्था को तहस-नहस करने पर वही युवा देशभक्त लगे हैं जिन पर इनको सहेजने की जिम्मेदारी रहनी चाहिए। लोकतंत्र बेशक नंबरों का खेल माना जाता हो लेकिन भीड़ जुटाना लोकतंत्र को सुचारू चलाना नहीं है। जिस भीड़ को सत्ताएं अपना समझती हैं वही भीड़ उनके भी विरोध में खड़ी हो सकती है। यह तो भीड़ को भेड़चाल में चलाने वाले सत्ताधीशों को साफ तौर पर समझ लेना चाहिए। भीड़ का स्वभाव गिरगिट के रुप की तरह बदलता रहता है। ऐसे समय में अच्छे दिनों की याद आना स्वभाविक है। सही है कि समय बदलता है तो व्यवस्था भी बदलती है। और बेशक बदलनी भी चाहिए। लेकिन सत्ता द्वारा व्यवस्था के बदलाव और समाज की समझदारी में समन्वय भी रहना चाहिए। दोनों की नीयत साफ हो। महात्मा गांधी के हिंद स्वराज को आज के माहौल में देखने से समय और उसके सत्य को समझने में मदद मिल सकती है। संवाद में पाठक-संपादक के सवाल-जवाब की शैली आज भी दकियानूसी नहीं है। हिन्‍दुस्‍तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इतने बड़े लोकतंत्र में नीतियों पर लोकसम्‍मति स्‍थापित करना आसान नहीं है। नेताओं की नीतियों में नैतिकता झलकनी चाहिए। गांधीजी ने इसके लिए एक तिलस्‍म भी लिखा था। “हर नीति बनाने से पहले यह ध्‍यान रखा जाए की सबसे आखिरी, सबसे गरीब आदमी पर उसका क्‍या असर पड़ेगा।” क्यों अपनी ही सरकारों के प्रति आज असंतोष और अशांति की भावना दिखती हैं? आज तो सरकार अपनी ही हैं फिर भी असंतोष बना हुआ है। जागरूक समाज सदा असंतोष और अशांति में ही रहता है। आज गंभीर स्थितियों से बाहर निकलने के लिए असंतोष है। संतुष्‍ट होना, यानी विकास का ठहरना। विकास थमता है तो असंतोष बढ़ता है। असंतोष बढ़ता है तो अशांति फैलती है। इंसान जब नींद में से उठता है तो भान होने तक अशांत ही रहता है। आज भी हम नींद से उठकर अंगड़ाई लेने की हालत में ही हैं। आजादी के अमृत महोत्सव में लोकतंत्र की अंगड़ाई ही ले रहे हैं। असंतोष विकास का परिसूचक भी होता है। अशांति किसी को नहीं सुहाती। लोकतंत्र में असंतोष और अशांति दर्शाने का अवसर अहिंसक चुनाव देते हैं। आदमी जब तक चली आ रही हालात में खुश रहता है, तब तक उसमें से निकलने के लिए उसे समझाना मुश्किल होता है। इसलिए हर एक सुधार से पहले असंतोष होना ही चाहिए। चली आ रही चीज़ से उब जाने पर ही उसे फेंक देने का मन करता है। मगर आज असंतोष जताना आसान नहीं है। असंतोष जताना हिंसक होता जा रहा है। सभ्‍य समाज के लिए जरूरी है कि उसका असंतोष जताना अहिंसक ही रहे। हिंसा से जताए गए असंतोष के कारण सत्‍ता को भी हिंसा की आजादी मिलती है। आज भीड़तंत्र से जो अशांति फैल रही है उस पर काबू पाने में समाज और सरकार दोनों असफल रहे हैं। यह समझना जरूरी है कि भीड़ का कोई अस्तित्‍व नहीं होता। भीड़ का कोई सिद्धांत भी नहीं होता। आज अगर भीड़ एक पक्ष में है तो कल वो विपक्ष में भी हो सकती है। भीड़तंत्र को उकसाने वाले पक्ष के हों या विपक्ष के, भीड़ की भावना तो हिंसा के प्रति ही प्रवृत्‍त रहती है। समाज में सेना की नौकरी को गर्व और सम्मान से देखा जाता रहा है। सरकार का कहना है कि आज युद्ध के तरीके और उपकरण बदल गए हैं इसलिए सेना में भर्ती के नियम कानून भी बदलने चाहिए। ज्यादा युवाओं के लिए भर्ती को अनुबंध में ढाला जा रहा है। किसी को शक या संदेह क्यों होना चाहिए? लेकिन जब देश में भीड़तंत्र तोड़फोड़ पर उतरा तब ही क्यों सेना अधिकारी प्रधानमंत्री को अग्निपथ के नियम कानून समझाने दौड़े। और युवाओं को नई नीति कौन समझाएगा। यह सब पहले भी किया जा सकता था। मगर क्या लोकतंत्र में तानाशाही से जनता पर अचानक लाए गए नियम कानून थोपने चाहिए? क्या समाज के साथ या विश्वास के बिना सरकार का प्रयास और देश का विकास संभव है? अग्निवीरों को अग्निपथ पर आग उगलने के बजाए संवाद में सवाल करने की आजादी मिले। समाज के लिए यह उसकी आजादी का सवाल है। आजाद सरकार को भी समय पर जवाब देना होगा। क्योंकि यह आजादी का अमृत महोत्सव है।
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