वेदों में वसंत को संवत्सर का मुख कहा गया है, इस दृष्टि से यह वसंत प्रथम ऋतु है। मुख होने के दो अर्थ होते हैं- एक वर्ष का वसंत से प्रारंभ होना, और दूसरा वर्ष की वसंत से पहचान होना। इनमें पहला अर्थ वर्ष का वसंत से प्रारम्भ होना प्रमुख भी है और सर्वमान्य भी। इसीलिए चैत्र से आरंभ होते वर्ष के लिए चैत्र-वैशाखयोर्वसन्त: कहा गया है। वैदिक मास में यह मधुमास व माधवमास है। परन्तु चैत्र तक ग्रीष्म ऋतु के अपनी धमक थोड़ी तेज कर देने से लगता है कि वसंत को तो फाल्गुन मास तक प्रवेश कर लेना चाहिए।
भारतीय काल गणना परंपरा में बारहमासे में षड्ऋतुओं अर्थात छः ऋतुओं का विधान किया गया है। ये छः ऋतुएँ हैं- वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत व शिशिर अर्थात शीत। इन छ: ऋतुओं में वसंत की स्थिति अद्भुत व अप्रतिम दिखाई देती है। तीन ऋतुओं में तीन मौसम- शीत, ग्रीष्म और वसंत- स्पष्ट रूप से समाहित दिखाई देते हैं । शीत और ग्रीष्म के मध्य स्थित वसंत ऋतु से अधिक ऋतुसंधि है। यदि यह ऋतुसंधि है, तो वर्ष में एक नहीं, दो वसंत होने चाहिए – एक शीत के आरंभ में, दूसरा, शीत के अंत में। लेकिन भारतीय परंपरा सिर्फ द्वितीय अर्थात शीत के अंत को वसंत मानती है। प्रथम वसंत की बजाय शरद ऋतु कही जाती है, लेकिन वह अघोषित रूप में है तो वसंत ही है। वसंत को ऋतु मानने से वह प्रथम ऋतु है, और उसे ऋतुसंधि मानने से वह चतुर्थ ऋतु है।
वेदों में वसंत को संवत्सर का मुख कहा गया है, इस दृष्टि से यह वसंत प्रथम ऋतु है। मुख होने के दो अर्थ होते हैं- एक वर्ष का वसंत से प्रारंभ होना, और दूसरा वर्ष की वसंत से पहचान होना। इनमें पहला अर्थ वर्ष का वसंत से प्रारम्भ होना प्रमुख भी है और सर्वमान्य भी। इसीलिए चैत्र से आरंभ होते वर्ष के लिए चैत्र-वैशाखयोर्वसन्त: कहा गया है। वैदिक मास में यह मधुमास व माधवमास है। परन्तु चैत्र तक ग्रीष्म ऋतु के अपनी धमक थोड़ी तेज कर देने से लगता है कि वसंत को तो फाल्गुन मास तक प्रवेश कर लेना चाहिए। लेकिन ऋतु गणना के लिए कोई निश्चित काल निर्धारित नहीं है। मध्य हिमालय प्रदेश क्षेत्र में वसंत के रूप में चैत्र-वैशाख बिल्कुल ठीक हैं, किन्तु मध्य भारत व उससे नीचे के क्षेत्र में वसंत के लिए यह काल विलम्ब वाली साबित होती है। इसी विसंगति को दूर करने के लिए कभी माघ की पंचमी को वसंतपंचमी कहा गया, जबकि कई पौराणिक ग्रन्थों में यह शिशिर-ऋतु है ।
वसंत ऋतु का मन में स्मरण होते ही भारतीय परंपरा के तीन आयाम- प्रेम, होली व सरस्वती पूजन की पारम्परिक छवि मानस पटल पर अंकित महसूस होने लगती है। भारतीय जनमानस में वसंत की ऋतु सहस्त्राब्दियों से प्रीति की ऋतु अर्थात प्रेम का आयाम स्थापित करने वाली काल मानी जाती रह है। किम्बदंतियों से लेकर पौराणिक व लोक साहित्य तक में प्रेम के देव व देवी कामदेव व रति के वृहत रूप से धर्मात्मक व रूपकात्मक वर्णन अंकित व श्रुत्य प्राप्य हैं। इससे संयुक्त सांस्कृतिक पर्व होली है, जो अतिप्राचीन काल से वसंतोत्सव, मदनोत्सव आदि अनेक नामों से विभिन्न रंगों की बौछार कर रही है। वसंत का एक अन्य मेधात्मक रूप है –सरस्वती पूजन। वाक सरस्वती वसंतपंचमी की मूल अधिष्ठात्री देवी हैं । वसंत ऋतु प्रेम की ऋतु मानी जाती है। वसंत में ऋतु सर्वाधिक सुखद होती है। प्रकृति भी सर्वादिक पुष्पित होती है ।
ऐसे में वसंत काल में प्रकृति ही प्रेम की ऋतु के रूप में सहज ही उपस्थित हो जाती है। और वसंतपंचमी माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को आ जाती है। विद्वानों के अनुसार पूर्वकाल में वसंत ऋतु चैत्र मास के स्थान पर उसके पूर्व माघ मास से में ही आ जाती थी। कालान्तर में ऋतु परिवर्तन हो जाने के कारण यह चैत्र से प्रारंभ माना गया। और पूर्व से प्रचलित माघ की पंचमी को ही वसंतपंचमी मान लिया गया । सहस्त्राब्दियों में मौसम बदल जाने के कारण
आहार-विहार की ऋतुचर्या बदल गई, फिर ऋतुगणना भी बदल गई। कुछ लोग इसका कारण संस्कृति परिवर्तन मानते हैं। वैदिक संस्कृति के स्थान पर लौकिक व पौराणिक संस्कृति के प्रतिस्थापन से यह सम्भव हो सका। पौराणिक ग्रन्थों में माघपंचमी को श्रीपंचमी व ऋषिपंचमी मनाने का उल्लेख मिलता है। विद्वानों के अनुसार यह वैदिक पर्व था, लेकिन कालान्तर में ऋषि को श्री सरस्वती मान लिया गया, तब ऋषिपंचमी के स्थान पर सरस्वती की पंचमी आ गई। और सरस्वती वसंत की अधिष्ठात्री देवी बन गई और फिर माघ की पंचमी का वसंतपंचमी नामकरण हो गया।
पौराणिक मान्यता के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को सरस्वती का जन्म हुआ था। पीला रंग ही वासंती रंग माना गया है। इन दिनों सरसों के फूले पीले रंग का विस्तार देखकर यह उचित प्रतीत होता है। इस मौसम में प्रकृति में पीले रंग की प्रधानता होती है। सात रंगों के वर्णक्रम में पीला रंग पाँचवें स्थान पर आता है, इसीलिए वसंत के साथ पंचमी जुड़ा है। वसंत का स्वरूप पंचम शब्द से कुछ अधिक ही गहरे से जुड़ा है। पौराणिक ग्रन्थों में ऋतूनां कुसुमाकरः नाम से अभिहित ऋतुराज वसंत के नायक पुष्पधन्वा कामदेव को संस्कृति में पंचशर कहा गया है। पुष्पधन्वा कामदेव के तरकश में पाँच बाण हैं- आम, अशोक, चंपा, नीलकमल, श्वेतकमल। वसंत ऋतु पंच इंद्रियों व उनके तन्मात्र- शब्द, स्पर्श, गन्ध, रूप और रस के लिए सुंदरतम या सुखदतम है। वसंत प्रेम का प्रवर्तक है तो कला का प्रतीक भी है। आनंद में मत्त कर देने वाली संगीत व नृत्य कला का सुन्दरतम प्रतीक है।
संगीत के सप्त स्वरों के सरगम में सुरों का पंचम पिक या कोयल है और यही वसंत की स्वर साम्राज्ञी है। नृत्य के सुंदरतम प्रतीक मयूर के पंचशिख कहने से भी पंचमी ध्वनित हो जाती है। सरस्वती ज्ञान के साथ ही कला व संगीत की देवी होने के कारण पंचमी का आधार और प्रबल हो जाता है। वसंत को ही प्रेम का श्रेष्ठ ऋतु-प्रतीक सिद्ध माना गया है। प्राचीन काल से ही प्रेम को काम कहते हुए उसे ही वसंत का नायक माना गया है। कामदेव पराक्रमी तो नहीं, परंतु अपराजेय धनुर्धर अवश्य हैं। धनुर्धर भी ऐसा कि पुष्पों के बाण चलाते हैं, जिसके आघात से पत्थर का हृदय भी पिघल जाता है। वसंत ऋतु और फिर स्वयं प्रेम की प्रकृति के आधार पर पुष्पधन्वा नाम उचित ही है। पाँच बाण पंच इन्द्रियों के प्रतीक हैं। पंच इंद्रियों व उनके तन्मात्र के माध्यम से कामभाव प्रभावी होता है। मारण, स्तम्भन, जृम्भन, शोषण, व उम्मादन (मन्मन्थ) प्रेम के विकार बन जाते हैं।
भारतीय संस्कृति और पुरातन ग्रथों में प्रेम से अधिक काम शब्द का प्रयोग हुआ है। कालान्तर में प्रेम शब्द काम से अधिकाधिक स्वतंत्र होता गया और बाद में मन और हृदय से अधिक देह प्रधान मान लिया गया। प्राचीन काल में काम का इतना सीमित संकुचित अर्थ नहीं था अर्थात यह प्रेम या काम तक ही सीमित नहीं था। पौराणिक ग्रन्थों में काम जहाँ गंधर्व के समान देव था, वहीं रति भी अप्सरा सी देवी थी। दोनों के ही नाम प्रकृति ध्वनित महसूस होती है। काम में जहाँ पुरुषोचित कामना है, जो दृप्त है, वहीं रति में स्त्रियोचित सुरति है, जो अव्यक्त ही रहता है। फिर भी कामदेव और रति युगल प्रेम के दैहिक और हार्दिक दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। गंधर्व योनि के कामदेव कंदर्प नाम से भी अभिहित किये गए हैं। गंधर्व और कंदर्प को एक ही भाव के दो उच्चारण माना जाता है। वे फूलों का बाण चलाने वाले होने के कारण पुष्पधन्वा कहलाते हैं। कामदेव का धनुष इक्षु अर्थात गन्ने का बना होता है, जिसमें मधु की रस्सी लगी है। यह वैदिक मधुमास की कल्पना को पोषित करती है। मान्यता है कि इस धनुष की टंकार स्वरविहीन होती है अर्थात कामदेव जब अपने कमान से तीर छोड़ते हैं, तो उसकी आवाज नहीं होती है। यह प्रेम के मौन में पर्यवसित होने की ही प्रतीकात्मता है।
काम के लिए वसंत उसके तमाम माध्यमों में से एक माध्यम है। वे परस्पर पूरक हैं, अनिवार्य नहीं। कामदेव के लिए प्रकृति और व्यक्ति दोनों के सौंदर्योपादान सहायक बनते हैं। मानव के रूप, यौवन, श्रृंगार, गीत, संसर्ग ही नहीं, प्रकृति के उपादान रहे फूल, जल, हवा, कलरव, सुगंध, सौंदर्य सब ही उसके सहायक होते हैं। ऐसे में प्रकृति के अधिकांश उपादान सबसे बेहतर रूप में सजा कर ले आने के कारण वसंत श्रेष्ठ साधक बन जाता है। काम-रति की कथा में पुष्पधन्वा के दहने और अनंग बनने की कथा भी उल्लेखनीय है। काम व रति मनोभाव थे, परन्तु पूर्व में मूर्त रूप में थे, दैहिक ही नहीं, मानवीय रूप में भी। मान्यता है कि वे देवराज इंद्र के सभासद व सेवक हैं। किसी ऋषि- मुनि के तपबल से इंद्र के सिंहासन से अपदस्थ होने की आशंका इंद्र के मन में होने पर इंद्र उसके तप को भंग करने के लिए रति की प्रतिकृति किसी अप्सरा को भेज देते हैं और साथ ही ऋषि पर बाणसंधान के लिए कामदेव को।
इससे सम्बद्ध एक पौराणिक कथा के अनुसार अपने पिता के यज्ञ में पति का अपमान देख शिवपत्नी दाक्षायणी के यज्ञ कुंड में कूद कर सती हो जाने से कुपित प्रकृति देवता शिव विकृति में संहार के देवता बन गए, और संसार का संहार करने लगे। विष्णु व देवों के प्रयास से शिव रुके, लेकिन योग की अखंड समाधि में चले गए। उनके बिना सृष्टि ही थम गई। यह देख सृजन के देवता को उनकी प्रिय को उनके जीवन में वापस देने का अप्रत्याशित निर्णय लेना पड़ा। सती विगत जीवन की पूर्ण स्मृति और प्रीति के साथ पार्वती के रूप में जन्मी, लेकिन शिव तो अनंत की तपस्या में लीन थे। उन्हें जगाकर उनमें प्रीति जगाने के लिए देवों के कहने पर इंद्र ने तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा। कामदेव ने तप में लीन शिव पर अपना बाण चला दिया। इससे शिव का ध्यान भंग हुआ, और क्रुद्ध होकर उन्होंने कामदेव को प्रलय की अग्नि बसने वाली तीसरे नेत्र से देखा, जिससे कामदेव भस्म हो गया। काम का अंत होते देख उसकी प्रेयसी रति अपने सुहाग की भीख मांगते हुए करुण भाव से शिव के समक्ष याचना लेकर पहुँची। इससे शिव द्रवित हो गए और बोले- काम की देह तो दहन हो गई, वह अब पुनरुत्पन्न नहीं हो सकती, लेकिन कामदेव अनंग होकर, विदेह होकर, अदृश्य होकर पुनर्जीवित हो सकता है। रति ने यह स्वीकार कर लिया। तब से काम अमूर्त रहकर प्रेम का राज चला रहा है। रति सहचरी बनी उसका साथ दे रही है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार शिव द्वारा कामदेव को भस्म करने पर रति विलाप से द्रवित शिव ने कामदेव के पुनः कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में मानव देह में पुनः जन्म लेने का वरदान दिया। रति तब प्रद्युम्न की प्रेयसी मायावती के रूप में जन्मी। स्पष्ट है, तब तक काम को मानसिक और हार्दिक रूप से अधिक दैहिक ही मान लेने की रूढ़ि प्रबल हो चुकी थी।