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सियासत के सूखे पठार से रूमानियत की उम्मीद

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मैं नहीं मानता कि उनकी पदयात्रा ने सब-कुछ बदल कर रख दिया है, लेकिन उन्होंने दो व्यक्तित्वों के फ़र्क़ के हर्फ़ आम दिमाग़ों में चस्पा कर दिए हैं। यह कम नहीं है। अगर सड़क-चलते राहुल चार महीनों में इतना कर सकते हैं तो सोचिए कि शक्ति-संपन्न राहुल चार साल मिलने पर कितना कर डालेंगे? इसलिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने आगे के लिए मुल्क़ के ऐतबार की ज़मीन को अभंजनीय बनाने का काम किया है।

आप ही की तरह मैं भी हुलस कर यह देखने बैठा हूं कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समापन समारोह में हिस्सा लेने 21 में से कितने राजनीतिक दलों के नुमाइंदे श्रीनगर पहुंचते हैं। 75 बरस पहले 30 जनवरी की शाम 5 बज कर 17 मिनट पर नाथूराम गोड़से ने महात्मा गांधी पर गोलियां चलाई थीं। सो, मौजूं होगा कि श्रीनगर में यात्रा का समापन समारोह ऐन उसी वक़्त यानी शाम सवा पांच बजे हो। दो बातें तय हैं। एक, नफरत की आंधी के मौजूदा दौर में समाज को जोड़े रखने वाले गांधी के मूल्यों की हिफ़ाज़त के लिए राहुल गांधी की पौने चार हज़ार किलोमीटर की पदयात्रा के समापन को अपनी प्रतीक-उपस्थिति से नवाज़ने वाले भावी सामाजिक-इतिहास के चितेरे होंगे। दो, ऐसा करने से कतराने वालों के दामन पर भावी पीढ़ियों को श्यामल धब्बे देर तक दूर से दिखाई देते रहेंगे।

शरद पवार, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, एम. के. स्टालिन, तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे, एन. चंद्राबाबू नायडू, अखिलेश यादव, मायावती, हेमंत सोरेन, सीताराम येचुरी, डी. राजा, फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती, जीतनराम मांझी, वाइको, थिरुमावलवन, कादर मोहिदीन और मनोज भट्टाचार्य उन राजनीतिक दलों के मुखिया हैं, जिन्हें कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ संपन्न होने के मौक़े पर आमंत्रित किया है। गुलाम नबी आज़ाद, अरविंद केजरीवाल और के. चंद्रशेखर राव को दावतनामा नहीं भेजा गया है। भेजा भी जाता तो वे आते नहीं। सो, नहीं भेज कर ठीक ही किया। नवीन पटनायक, सुखबीर सिंह बादल और जगन रेड्डी तो अभी इस स्थिति में हैं ही नहीं कि नरेंद्र भाई मोदी से अदावत मोल ले सकें। इसलिए उन्हें न्यौतने का शिष्टाचार दिखाना भी फ़िजूल था।

हालांकि पिछले तीन महीनों में राहुल बार-बार यह बात साफ कर चुके हैं कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ उन की व्यक्तिगत पदयात्रा नहीं है; कांग्रेस इस की आयोजक भले ही है, लेकिन यह कांग्रेस की भी पदयात्रा नहीं है; यह राजनीतिक इरादों से की जा रही यात्रा भी नहीं है; चुनावी राजनीति से भी यात्रा का कोई लेना-देना नहीं है; और, यह पूरी तरह सामाजिक-सांस्कृतिक नज़रिए से की जा रही पदयात्रा है। मगर फिर भी जिन्हें लगता है कि श्रीनगर में उनकी उपस्थिति से यह संदेश जा सकता है कि उन्होंने कांग्रेस को विपक्ष का अगुआ और राहुल को अपना नेता मान लिया है, उन के असुरक्षा-भाव पर मैं तो तरस ही खाऊंगा। पूरी पदयात्रा की राह जिस तरह तिरंगे के तले तय हुई है, जिस तरह कांग्रेस ने अपने पार्टी-ध्वज का उस में इस्तेमाल करने से ख़ुद को बचाया है, वह समान विचारों वाले सभी सियासी दलों को सामान्यतः इस आश्वस्ति-अहसास से सराबोर करने वाला होना चाहिए कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समापन कार्यक्रम में उन की शिरकत से किसी एक के नेतृत्व पर मुहर लगने की कोई भी अवधारणा देश में कतई नहीं बनने वाली है।

लेकिन आजकल राजनीति मोटे तौर पर छोटे दिल-दिमाग़ वाले लोगों की मुट्ठी में भिंची कसमसा रही है। इसलिए श्रीनगर की बर्फ़ीली वादियों को अपनी मौजूदगी से गर्माहट देने कौन पहुंचेगा, कौन नहीं, कौन जाने? अगर खड़गे का दावतनामा क़बूल कर सभी आमंत्रित 30 जनवरी को श्रीनगर पहुंच गए तो यह रेखांकित करने लायक घटना होगी। मुझे ममता, अखिलेश और मायावती के साहस पर संदेह है। उन में से जो-जो श्रीनगर पहुंचेगा, उस-उस की हरदिलअजीज़ी में अखिल भारतीय इज़ाफ़ा होगा। जो-जो किनाराक़शी कर लेगा, वो-वो नरेंद्र भाई मोदी के हंटर से भयभीत माना जाएगा। सकल विपक्ष के नेतृत्व से जुड़े मसलों के मुलम्मे की कोई भी स्वर्ण-परत इस ताम्रपन को ढंकने में नाकाम रहेगी।

मैं खड़गे होता तो नाउम्मीदी के तमाम जायज़ पहलुओं के बावजूद गुलाम नबी आज़ाद, अरविंद केजरीवाल और चंद्रशेखर राव को भी इस सामाजिक-सांस्कृतिक अनुष्ठान का भागीदार बनने के लिए ज़रूर निमंत्रित करता। महात्मा गांधी पर बरसीं गोलियों के ख़िलाफ़ वे श्रीनगर पहुंचते तो उन्हें साफा पहनाता। गोडसे की पिस्तौल का साथ देते हुए अगर वे नहीं आते तो ईश्वर से यह कहते हुए उन के लिए क्षमा याचना करता कि वे नहीं जानते हैं कि उन के हाथों क्या पाप हो रहा है! और, अगर मैं आज़ाद, केजरीवाल या राव होता तो बिन बुलाए भी श्रीनगर पहुंच जाता और उलाहना देता कि आप लोग भले ही अपने प्रयासों की बिटिया के जनतंत्र के साथ हाथ पीले करते वक़्त हमें बुलाना भूल गए हों, मगर हम इतने भी फ़र्ज़-फ़रामोश नहीं हैं कि इस पावन अवसर पर ख़ुद-ब-ख़ुद ही न पहुंच जाएं।

लेकिन सियासत के सूखे पठार पर रूमानियत के फूल नहीं खिला करते। इसलिए जो नहीं होना है, वह नहीं होना है। इतने ही बड़े दिल-जिगर होते तो भारतीय जनतंत्र की ऐसी बदहाली क्यों होती? सो, राहुल चाहे कितने ही नीलकंठ-भाव से पांव-पांव घूम लें, कांग्रेस अपनी तरफ से सब को जोड़ने की कितनी ही कोशिशें कर ले, जिन्हें नहीं जुड़ना, वे नहीं जुड़ेंगे। वे अपने वैचारिक झोले को कभी इस, कभी  उस, खूंटी पर लटका कर मस्ती से डोलते रहेंगे। उन की प्रतिबद्धता सिर्फ़ स्वयं के लिए है। किसी मूल्य, सिद्धांत, नीति और विचार से उन का कोई लेना-देना नहीं है। सकारात्मक शक्तियों के इन्हीं सेंधमारों की वज़ह से नकारात्मक शक्तियां हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक संस्कारों पर राज करती हैं। तात्कालिक नफ़े-नुक़्सान के इन्हीं सौदागरों के गणितीय फंदे में आज के आर्यभट दम तोड़ रहे हैं।

कोई माने-न-माने, राहुल गांधी ने, छोटा-मोटा ही सही, नया इतिहास रचा है। मैं उन्हें तपस्वी कहे जाने से सहमत नहीं हूं, लेकिन उन्होंने डेढ़ सौ दिनों तक अनवरत एक क़िस्म की दैनिक उपासना करने की हिम्मत दिखाई है। मैं नहीं मानता कि उन का यह काम तपस्या की श्रेणी में आता है, मगर उन्होंने एक कष्टसाध्य पूजन की मिसाल निश्चित ही पेश की है। मैं नहीं मानता कि उनकी पदयात्रा ने सब-कुछ बदल कर रख दिया है, लेकिन उन्होंने दो व्यक्तित्वों के फ़र्क़ के हर्फ़ आम दिमाग़ों में चस्पा कर दिए हैं। यह कम नहीं है। अगर सड़क-चलते राहुल चार महीनों में इतना कर सकते हैं तो सोचिए कि शक्ति-संपन्न राहुल चार साल मिलने पर कितना कर डालेंगे? इसलिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने आगे के लिए मुल्क़ के ऐतबार की ज़मीन को अभंजनीय बनाने का काम किया है।

मैं नहीं जानता कि समान विचारों वाले गलियारे से राहुल को भविष्य में कितना समर्थन मिलेगा, कितना नहीं। मैं यह भी नहीं जानता कि उन के अपने हमजोली भविष्य में कितने अविचल मन से उन का साथ देंगे, कितना नहीं। लेकिन इतना मैं ज़रूर जानता हूं कि ख़ुद पर बेतरह हावी होते जा रहे सूफ़ियानेपन की छांव के चलते अगर सांसारिक दृश्यों को देखने-समझने की उन की दृष्टि धुंधली न पड़ी तो अगले पंद्रह महीनों में राहुल सियासी चादर पर एक ऐसी इबारत लिख डालेंगे, जिसे धो-पोंछ डालना किसी के लिए भी मुमक़िन नहीं होगा। आज उन की दाढ़ी, टी-शर्ट और षिव-कथाओं पर छींटाकशी करने वालों को यह अंदाज़ ही नहीं है कि जनभावनाओं की तरंगों ने कैसा आकार लेना शुरू कर दिया है?

सो, मेरे साथ आप भी थोड़ा समय गुज़रने का इंतज़ार कीजिए। ’भारत जोड़ो यात्रा’ संपन्न होने के अगले दिन जब संसद का बजट सत्र शुरू होगा तो उस में आप एक नई कांग्रेस को नमूदार होते देखेंगे। उस में आप राहुल गांधी को एक निराला स्वरूप लेते देखेंगे। ज़ोर से अपनी आंखें भींच कर बैठ जाने वाले भी यह इंद्रधनुष देखने से बच नहीं पाएंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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